“गांधी – सियासत और सम्प्रदायिकता” पुस्तक का वोमोचन – बड़े इत्तिहासकारों का व्याख्यान

अब इत्तिहास पर रोने का समय नही है बल्कि अब नये इत्तिहास लिखे की आवश्यकता है। इसके लिये फिर एक क्रांति की शांति पूर्वक तैयारी करनी होगी। 

अब इत्तिहास पर रोने का समय नही है बल्कि अब नये इत्तिहास लिखे की आवश्यकता है। इसके लिये फिर एक क्रांति की शांति पूर्वक तैयारी करनी होगी। 

“गांधी – सियासत और सम्प्रदायिकता” पुस्तक का वोमोचन – बड़े इत्तिहासकारों का व्याख्यान –
अब इत्तिहास पर रोने का समय नही है बल्कि अब नये इत्तिहास लिखने की आवश्यकता है। इसके लिये फिर बहुत जल्द एक क्रांति  की शांति पूर्वक तैयारी करनी होगी। 
एस. ज़ेड. मलिक

नई दिल्ली – इस्लाम पर गहन मंथन करने वालों का चर्चित थिंक टैंक “इंस्टिट्यूट ऑफ ऑब्जेक्टिव स्टडीज” द्वारा नई दिल्ली के रायसीना रोड स्थित कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में एक नई पुस्तक  ‘गांधी: सियासत और साम्प्रदायिकता” का  विमोचन किया गया। इस अवसर पर देश की प्रमुख इत्तिहासकारों और समाजविदों, गांधी विचारकों गाँधीविदों और वरिष्ठ प्रकारों को आमंत्रित किया गया। जिन्होंने “आईओएस” द्वारा प्रकाशित पुस्तक के लेखक वरिष्ठ पत्रकार “पीयूष बाबिले” को बधाई दी।


इस विमोचन समारोह के मुख्य अतिथि राष्ट्रपिता मोहन दास करमचन्द महात्मा-गांधी के पौत्र तुषार गांधी जो इस अवसर पर उपस्थित नहीं हो सके उन्होंने अपनी अनुपस्थिति का कारण वीडियो कांफ्रेंसिंग से संबोधित करते हुए कहा कि “गांधी” की विचारधारा पर चलने से ही यह देश मजबूत, शक्तिशाली और शांतिपूर्ण बना रहेगा। आज के दौर में कुछ तत्व महात्मा गांधी के चरित्र पर सवाल उठाने लगे हैं, उनके हिन्दू होने पर सवाल उठा रहे हैं, ऐसी मानसिकता रखने वाले “नाथू राम गोडसे” के अनुयायी हैं। मैं स्पष्ट रूप से मानता हूं कि हिंदू और हिंदुत्व के बीच वही अंतर है जो गांधी और गोडसे के बीच है।

प्रख्यात बुद्धिजीवी, समाजविद प्रो. अपुर्वानंद ने अपने संबोधन में कहा कि गांधी युग में भी भारत की जनता साम्प्रदायिकता की समस्याओं से जूझ रही थी। हिन्दू मुसलमानों के विरुद्ध थे और कुछ मुसलमान हिन्दुओं के विरुद्ध, उन्होंने दोनों को सामने रखकर देश के निर्माण और सुधार के लिए संघर्ष किया, लेकिन हाल के दिनों में समस्या संप्रदायवाद की नहीं बहुसंख्यकों की है। देश का बहुसंख्यक हिस्सा कानून और संविधान पर भरोसा करने के बजाय, कानून के शासन के बजाय अपनी नमोस्थिति के अनुकूल भारत को बदलना चाहता है। उनकी सोच यह बन गई है कि अल्पसंख्यकों और मुसलमानों पर अत्याचार करना कानून का उल्लंघन नहीं है। इसलिए आज की स्थिति में बहुमत ही सबसे बड़ी चुनौती है और इसका एकमात्र समाधान कानून का राज है क्योंकि संविधान में सभी को समान अधिकार दिए गए हैं।

 वहीं उपस्थित  प्रोफेसर विपन कुमार त्रिपाठी ने कहा कि मेरा मानना ​​है कि संप्रदायवाद को हमेशा देश के पूंजीपतियों और व्यापारियों ने संरक्षण दिया है, महात्मा गांधी के समय में भी जो पूंजीपति और बड़े व्यवसायी थे, वे अंग्रेजों से जुड़े थे, आज भी यही लोग हैं। ऐसा वे सांप्रदायिकता और नफरत को बढ़ाने के लिए करते हैं।


डॉ. अशोक कुमार पाण्डेय ने अपने संबोधन में कहा कि देश में बढ़ती सांप्रदायिकता यहां के मुसलमानों की समस्या नहीं है बल्कि यह बहुसंख्यकों की समस्या है, बहुसंख्यकों को इससे लड़ने की जरूरत है, उन्हें समझने की जरूरत है लेकिन दुर्भाग्य से।बात यह है कि विधानसभा में संप्रदायवाद के खिलाफ चर्चा में बहुसंख्यक लोग हैं जो खुद इसके शिकार हैं, मेरा मानना ​​है कि ऐसी सभा में बोलना उनके जख्मों पर मरहम लगाने जैसा है।

प्रोफेसर अफजल वानी वाइस चेयरमैन आईओएस ने कहा अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि महात्मा गांधी धर्मनिरपेक्षता की नींव थे, उन्होंने बार-बार कहा कि हिंदू और मुसलमान दोनों एक ही देश के हैं, मुसलमान अपने धर्म का पालन करेंगे और हिंदू अपने धर्म का पालन करेंगे, वे धर्म के खिलाफ नहीं बोलेंगे और उन्होंने इसे व्यावहारिक रूप से साबित कर दिया।

इससे पहले आईओएस के महासचिव प्रोफेसर जेडएम खान ने आईओएस का परिचय देते हुए पुस्तक के महत्व और विषय का जिक्र किया।

पुस्तक के लेखक पीयूष बाबिले ने अपने उद्बोधन में कहा कि इस पुस्तक में यह बताने का प्रयास किया गया है कि गांधी आज की स्थिति में क्या कहना चाहते थे और कैसे गांधी के विचारों पर चलकर हिंदू, मुस्लिम, सिख सभी ईसाई जी सकते हैं। देश में स्वतंत्र रूप से अपने धर्म का पालन कर रहे हैं। इसके अलावा महात्मा गांधी पुरस्कार के संस्थापक अमित सचदेवा, प्रसिद्ध पत्रकार शास्त्री रामचंद्रन, अधिवक्ता अनिल नूरिया ने अपने विचार व्यक्त किए और वर्तमान परिस्थिति में इस पुस्तक को अत्यंत आवश्यक बताया।

बहरहाल इन सभी बुद्धिजीवीओं को एक इत्तिहासिक सत्यता को भी स्वीकारना होगा, भारत मे जहां एक ओर अलगाववाद पनपरहा है, वहीं दुसरीं ओर समाज मे सम्प्रदायिकता का विष हिंदुओं के बीच हिंदुत्व के नाम पर फैलाया जा रहा है, जिसका श्रेय सीधे तौर पर वर्तमान की केंद्र सरकार भाजपा को जाता है। इत्तिहास को यदि कुरेदा जाए तो हिंदुस्तान में 18 वीं सदी के मध्यकालीन युग जहां से ब्रिटिश राज का दमनकारी इतिहास, आरम्भ होता है यानी 1858 और 1947 के बीच भारतीय उपमहाद्वीप पर ब्रिटिश शासन की अवधि को संदर्भित करता है। ब्रिटिश भारतीय शासन प्रणाली को 1858 में स्थापित किया गया था जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सत्ता को महारानी विक्टोरिया के हाथों में सौंपते हुए राजशाही के अधीन कर दिया गया (और विक्टोरिया को 1876 में भारत की महारानी घोषित किया गया)।  उस  दरमियान हिन्दू जातिवाद द्वेषित ब्राह्मण प्रतिद्वन्दीओं को ब्रिटिश हुकूमत मुसलमानो के खिलाफ इस्तेमाल करना आरम्भ करने लगे थे, इसलिये की ब्रिटिश हुकूमत पर भारतीय मुसलमान भारी पड़ते दिखाई दे रहे थे। उसका मुख्य कारण था हिन्दू मुस्लिम एकता , जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध मुस्लिम राजाओं ने जो अपना और अपने बच्चों का उज्जवल भविष्य अपनी हुकूमत तो चाहते थे लेकिन अंग्रेज़ी हुकूमत में नहीं, राजा , महाराजाओं के बाद जिन्हें छोटी छोटी विरासत मिली हुई थी वह लोग अपनी राजवाड़े वाली हुकूमत हमेशा स्थापित रखना चाहते थे और ऐसे ही लोग अपनी दमनकारी नीतियों के तहत गरीब दलित मज़दूरों को बंधुआ मजदूर बना कर उनका शोषण दोहन कर रखना चाहते थे। इन कृतियों में मुस्लिम के उच्च जाति और स्वर्ण जाती दोनों ही अपने अपने बनाये हुए धार्मिक गुलामो का नैतृत्व कर रहे थे। इन्हें सब से अधिक डर था कि अंग्रेज़ी हुकूमत हमारी ज़मींदारी , विरासत छीन कर हमें गुलामी करने पर मजबूर कर देगी और इसी आपा-धापी में भारत के उत्तर पूर्वी क्षेत्र में हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदायें के बड़े उहदेदार और रसूखदारों ने अपनी विरासत राजवाड़े बचाने के लिये लामबन्द हो गये तब गांधी का भारत मे कोई अतापता नहीं था। गांधी जी के भारत आगमन से पहले भारत मे सम्प्रदायिकता का विष फैलाने के लिये गौ हत्या , गाये मांस, सुअर मांस, मुसलमानो के खिलाफ भारत मे मुसलमानो की बढ़ती आबादी और भारत पर कब्ज़ा करने और हिंदुओं को गुलाम की अफवाहें फैलाते हुए 19 वीं सदी में प्रवेश करते हुए इन ज्वलन्त मुद्दों का इस्तेमान किया जाने लगा, इस मुद्दे में एक और मुदा जोड़ दिया गया मंदिरों का, अब भारत मे जितनी भी पुरानी मस्जिदें बनाई गई हैं वह सारी मस्जिदें मुगलों ने मंदिर तोड़ कर बनाये हैं, अब वह वापस चाहिय इसके लिये मन्दिर माफिया मनवादी ब्राह्मणों ने एक मुहिम चलाते हुए, 20 वीं सदी को पार करते हुए 21वीं सदी में प्रवेश कर वैसे युवा पीढ़ियों में भी इसी प्रकार नफरत को जन्म दे दिया है जब कि ऐसे साम्प्रदायिकता मानसिकता के द्वेषी, दुराग्रही, बहुत कम संख्या में हैं परंतु विभिन्न दलों में होते हुए भी संगठित हैं, इस लिये और उदारवादी बहुसंख्यक होते हुए भी आसंगठित उसका लाभ आज संघरहित भाजपा सत्तारूढ़ उठा रही है। इस पर सभी उदारवादियों को संगठित होना पड़ेगा और गहन मंथन कर समाधान निकालने होगा। अब इत्तिहास पर रोने का समय नही है बल्कि अब नये इत्तिहास लिखे की आवश्यकता है। इसके लिये फिर एक शांति के क्रांति करना होगा। 

 बहरहाल इस  समारोह में देश के कई प्रमुख पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने भाग लिया, जिनमें प्रो. अख्तर अल वासे, प्रो. इशाक अहमद, मौलाना अब्दुल हमीद नौमानी, प्रो. इश्तियाक आलम, प्रसिद्ध पत्रकार शोएब रज़ा फ़तेमी, प्रसिद्ध एंकर नवीन कुमार, न्यूज़ लॉन्ड्री के संपादक शामिल थे। अतुल चौरसिया, पत्रकार अहमद जावेद, मोहित शर्मा, पंकज श्रीवास्तव, रिजवाना मुश्ताक समेत कई लोगों के नाम टॉप लिस्ट में हैं। इससे पहले, समारोह की शुरुआत अदनान अहमद नदवी के किरायेत से हुई और प्रोफेसर हसीना हाशिया ने सभी प्रतिभागियों और मेहमानों को धन्यवाद दिया

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