गांधी – सावरकर के हितैषी थे, न कि दुश्मन – फिर गांधी को गोली का इनाम क्यूँ?

फिर गांधी को गोली का इनाम क्यूँ? सावरकर के माफीनामा पर पर्दा क्यों?

जिस देश की सरकार का मुख्या हत्यारे की पूजा करता हो – 80 प्रतिशत देश की जनता जय जय कारा करे – निश्चित ही उस देश का पतन होना है 😢😢😢

 लेखक यतेंद्र सिंह चौहान गाँधीवादी एवं वरिष्ठ समाज सेवी इनके अपने स्वतंत्र विचार हैं

 – आरएसएस के वरिष्ठ नेता और रक्षा-मंत्री राजनाथ सिंह का गाँधी जी को अपमानित करने का एक शर्मनाक प्रयास!

हिन्दुत्वादी विशेषकर आरएसएस से जुड़े लोग गाँधी जी को अपमानित और ज़लील करने के लिए कोई भी अवसर नहीं गंवाते हैं। गाँधी जी को अपमानित करने की श्रंखला में श्रेष्ठ स्वयंसेवक जो देश के रक्षा मंत्री भी हैं, राजनाथ सिंह सामने आये हैं। उन्होंने सावरकर पर एक पुस्तक के विमोचन के एक आयोजन में जहाँ आरएसएस के सर्वेसर्वा मोहन भगवत भी मौजूद थे, यह ज्ञान साझा किया कि ‘वीर’ सावरकर ने जो माफ़ीनामे लिखे वे गांधीजी की सलाह पर लिखे गए थे। मज़े की बात यह है कि सावरकर पर जिस किताब का विमोचन हो रहा था उसके लेखकों [उदय माहूरकर व चिरायु पंडित] ने इसी आयोजन में बताया कि उनकी किताब में ऐसा कोई ज़िक्र नहीं है!
  सावरकर को 50 साल की क़ैद भुगतने के लिये 4 जुलाई 1911 को काला पानी लाया गया [वे केवल 10 साल वहां रहे और फिर महाराष्ट्र की जेलों में हस्तांतरित किये गये। कुल मिलाकर 13 साल जेल में रहे अर्थात उन्हें लगभग 37 साल की क़ैद से छूट मिली], चंद महीनों में ही उन्होंने अपना पहला माफ़ीनामा अँगरेज़ हकूमत को पेश कर दिया। उनका सबसे विस्तृत और शर्मनाक माफ़ीनामा 14 नवंबर 1913 को सीधे उस समय के अँगरेज़ ग्रह मंत्री रेजिनाल्ड क्रेडॉक को सौंपा गया।
गाँधी जी 1915 में ही भारत आये। गाँधीजी किस माध्यम से दक्षिण अफ़्रीका से सावरकर तक पहुंचे इस का कोई सबूत देना राजनाथ सिंह ने ज़रूरी नहीं समझा। गाँधी जी ने 1920 में ज़रूर सावरकर और उनके भाई की रिहाई की मांग उठाई लेकिन उन्हें माफ़ी मांगने की सलाह दी इसका कोई सबूत नहीं है। सच तो यह है कि गाँधी जी ने सावरकर और उनके भाई के बारे में जो लिखा वह सावरकर के राष्ट्र-विरोधी चरित्र को ही रेखांकित करता है। गाँधी जी ने लिखा: “वे स्पष्ट रूप से यह जताते हैं कि अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से देश को आज़ाद करने की उनकी कोई ख़्वाहिश नहीं है। उसके बरक्स उनका मानना है कि भारत का भविष्य अँग्रेज़ राज में ही उज्जवल हो सकता है।”
 मांफीनामे का अधिकार अँगरेज़ सरकार ने दिया था कि लोग उनके साथ ख़राब बर्ताव, ज़ुल्म या नाइंसाफ़ी को लेकर सरकार का ध्यान आकर्षित करायें। इसे क़ानूनी भाषा में ‘मर्सी पिटिशन’ [रहम की गुहार] कहा जाता था। काला पानी जेल में सावरकर के समकालीन 2 क्रांतिकारी क़ैदियों ने जिन के नाम हृषिकेश कांजी और नन्द गोपाल ने भी अँगरेज़ शासकों के समस्त ‘मर्सी पिटिशन’ पेश की थीं। इनमें उन्होंने राजनैतिक क़ैदियों पर ढाये जा रहे ज़ुल्मों की तरफ़ ध्यान दिलाया था ।
 इसके विपरीत हिन्दुत्वादी ‘वीर’ सावरकर ने जो माफ़ीनामे लिखे वे शर्मनाक होने से भी बढ़कर थे। अपने क्रांतिकारी इतिहास को एक बड़ी ग़लती मानने से लेकर अंग्रेज़ों के सामने घुटने टेकने के साथ-साथ देश को ग़ुलाम बनाये रखने में उनको पूरा सहयोग देने का आश्वासन भी सावरकर ने दिया। सावरकर देश से किस हद तक ग़द्दारी करने के लिए रज़ामंद थे उसकी जानकारी उनके इन शब्दों से लगायी जा सकती है। 14 नवंबर 1913 के माफ़ीनामे का अंत उन्होंने इन शब्दों से किया: “सरकार अगर अपने विविध उपकारों और दया दिखाते हुए मुझे रिहा करती है तो मैं और कुछ नहीं हो सकता बल्कि मैं संवैधानिक प्रगति और अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादारी का,जोकि उस प्रगति के लिए पहली शर्त है,सबसे प्रबल पैरोकार बनूँगा। ं “इसके अलावा, मेरे संवैधानिक रास्ते के पक्ष में मन परिवर्तन से भारत और यूरोप के वो सभी भटके हुए नौजवान जो मुझे अपना पथ प्रदर्शक मानते थे वापिस आ जाएंगे। सरकार, जिस हैसियत में चाहे मैं उसकी सेवा करने को तैयार हूँ, क्योंकि मेरा मत परिवर्तन अंतःकरण से है और मैं आशा करता हूँ कि आगे भी मेरा आचरण वैसा ही होगा। “मुझे जेल में रखकर कुछ हासिल नहीं होगा बल्कि रिहा करने में उससे कहीं ज़्यादा हासिल होगा। ताक़तवर ही क्षमाशील होने का सामर्थ्य रखते हैं और इसलिए एक बिगड़ा हुआ बेटा अभिभावकों के दरवाज़े के सिवा और कहाँ लौट सकता है? आशा करता हूँ कि मान्यवर इन बिन्दुओं पर कृपा करके विचार करेंगे।”
 30 मार्च 1920 का माफ़ीनामा “मुझे विश्वास है कि सरकार गौर करेगी कि मैं तयशुदा उचित प्रतिबंधों को मानने के लिए तैयार रहूं, सरकार द्वारा घोषित वर्तमान और भावी सुधारों से सहमत व प्रतिबद्ध हूं, उत्तर की ओर से तुर्क-अफगान कट्टरपंथियों का खतरा दोनों देशों के समक्ष समान रूप से उपस्थित है, इन परिस्थितयों ने मुझे ब्रिटिश सरकार का ईमानदार सहयोगी,वफादार और पक्षधर बना दिया है। इसलिए सरकार मुझे रिहा करती है तो मैं व्यक्तिगत रूप से कृतज्ञ रहूंगा। मेरा प्रारंभिक जीवन शानदार संभावनाओं से परिपूर्ण था, लेकिन मैंने अत्यधिक आवेश में आकर सब बरबाद कर दिया,मेरी जिंदगी का यह बेहद खेदजनक और पीड़ादायक दौर रहा है। मेरी रिहाई मेरे लिए नया जन्म होगा। सरकार की यह संवेदनशीलता दयालुता, मेरे दिल और भावनाओं को गहराई तक प्रभावित करेगी, मैं निजी तौर पर सदा के लिए आपका हो जाऊंगा, भविष्य में राजनीतिक तौर पर उपयोगी रहूंगा। अक्सर जहां ताकत नाकामयाब रहती है उदारता कामयाब हो जाती है।”
 गाँधी जी ने सावरकर को रिहाई का रास्ता सुझाया और सावरकर ने उनकी हत्या कराई! एक क्षण के लिए हम मान लेते हैं कि गाँधीजी के सुझाव पर सावरकर ने माफ़ीनामे लिखे थे। इसका साफ़ मतलब हुआ कि गांधीजी सावरकर से हमदर्दी रखते थे, उनके प्रति कोई द्वेष नहीं रखते थे और उनकी रिहाई चाहते थे। इसका सिला या इनाम सावरकर और उनके गुर्गों ने गाँधीजी को क्या दिया; उनकी निर्मम हत्या कराई गयी। सावरकर सीधे गाँधीजी की हत्या की साज़िश में शामिल थे इस सच्चाई को किसी और ने नहीं बल्कि आरएसएस के प्रिय, देश के पहले ग्रह-मंत्री सरदार पटेल ने उजागर किया था।

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