समाज सुधार में प्रेमचन्द की रचनाओं की भूमिका।

वरिष्ठ पत्रकार – डाॅ बुद्धसेन काश्यप

प्रेमचन्द – शायद ही कोई भारतीय इस नाम से परिचित नहीं है। हिन्दी और उर्दू साहित्य की गहरी समझ रखनेवाले प्रेमचन्द को शब्दों में बयां करना आसान नहीं है। उनपर जितना लिखा जाये कम ही होगा। उत्तरप्रदेश के बनारस के समीप लमही की धरती पर 31 जुलाई 1880 को जन्म लेनेवाले धनपत राय श्रीवास्तव को बचपन से ही कहानियां सुनने का शौक था। यही शौक उन्हें आगे चलकर कहानीकार और उपन्यासकार बना दिया। उनके पिता डाकघर में मुंशी का काम करते थे। प्रेमचन्द भी सरकारी नौकरी में थे। गोरखपुर के स्कूल में शिक्षक थे। यही वजह रही कि उन्होंने शुरुअती दिनों में नवाब राय नाम से उर्दू में कहानियां लिखनी शुरु की थी। देश की जनता पर अंग्रेजी हुकूमत द्वारा किये जा रहे अत्याचार के खिलाफ भी उनकी लेखनी धारदार रही। उनकी लेखनी से परेशान अंग्रेजी हुकूमत ने उनकी रचना ‘सोजेवतन’ (सोजेवतन) को जब्त कर लिया था और उनपर प्रतिबंध लगा दिया। इसी के बाद धनपत राय श्रीवास्तव ने प्रेमचन्द उपनाम से कहानियां और उपन्यास लिखनी शुरू की। प्रेमचंद की प्रारंभिक शिक्षा भले ही उर्दू में हुई थी लेकिन हिन्दी और अंग्रेजी पर भी उनकी समान पकड़ थी। बंगाल के विख्यात   उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय प्रेमचन्द की लेखनी से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इन्हें उपन्यास सम्राट कहना शुरु कर दिया और तब से वह इस उपनाम से भी विख्यात हो गये।
प्रेमचन्द ने हिन्दी साहित्य को नयी दिशा दी है। प्रेमचन्द की प्रासंगिकता आज भी उतनी  ही है जितना कि उनके दौर में रही है। उनकी कहानियों और उपन्यासों में आम जनजीवन खासकर किसानों, महिलाओं और दबे-कुचले लोगों की पीड़ा का जिस तरह जीवंत वर्णन किया गया है अन्य लेखकों की लेखनी में उसका अभाव दिखता है। किसान जीवन के यथार्थवादी चित्रण में प्रेमचन्द हिन्दी साहित्य में अनूठे और लाजवाब रचनाकार रहे हैं। प्रेमचन्द का कथा साहित्य जितना समकालीन परिस्थितियों पर खरा उतरता है, उतना ही बहुत हद तक आज भी दिखाई देता है। उनकी रचनाओं में गरीब श्रमिक, किसान और स्त्री जीवन का सशक्त चित्रण ‘सद्गति’, ‘कफन’, ‘पूस की रात’ और ‘गोदान’ में मिलता है। ‘रंगभूमि’, ‘प्रेमाश्रम’ और ‘गोदान’ के किसान आज भी गांवों में देखे जा सकते हैं। साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचन्द का योगदान अतुलनीय है। उन्होंने कहानी और उपन्यास के माध्यम से लोगों को साहित्य से जोड़ने का काम किया, उनके द्वारा लिखे गये उपन्यास और कहानियां आज भी प्रासंगिक हैं।
प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परम्परा का विकास किया जिसने पूरी शती के साहित्य का मार्गदर्शन किया। वह एक संवेदनशील लेखक, सचेत नागरिक, कुशल वक्ता और सुधी सम्पादक थे। इनकी कहानियों में जहां एक ओर रूढियों, अंधविश्वासों, अंधपरंपराओं पर कड़ा प्रहार किया गया है, वहीं दूसरी ओर मानवीय संवेदनाओं को भी उभारा गया है। दरअसल, जिस समय उनका जन्म हुआ था रूढ़ीवादी परम्पराएं बहुत गहरी पैठ बना रखी थीं। यही वजह है कि अपने जीवन काल में वह विभिन्न सुधारवादी और पराधीनता की स्थितिजन्य नवजागरण प्रवृत्तियों से प्रभावित रहे हैं। ‘गोदान’ में तो यह अपनी पराकष्ठा पर पहुंच गयी है। यदि प्रेमचन्द युग का आरंभ ‘सेवासदन’ में है तो उसका उत्कर्ष ‘गोदान’ में है। वह आदर्शों और विचारधाराओं को अपने पात्रों पर थोपते नहीं हैं, बल्कि अन्तर्मन या अन्तरात्मा की आवाज की तरह स्वाभाविक रूप से प्रस्फुटित होने देते हैं। प्रेमचन्द ने ‘सेवासदन’ और ‘कायाकल्प’ में साम्प्रदायिक समस्या उठायी गयी है वहीं ‘सेवासदन’, ‘रंगभूमि’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ में अन्तरजातीय विवाह के मुद्दे को उठाया गया है। ‘गबन’ और  ‘निर्मला’ में मध्यम वर्ग की कुंठाओं का बड़ा ही स्वाभाविक और सजीव चित्रण किया गया है। ‘कर्मभूमि’ में हरिजनों की स्थिति और उनकी समस्याओं को बहुत ही बढ़िया ढंग से रखा गया है। ‘कफन’ के घीसू और माधव हों या ‘ईदगाह’ का हामिद, या ‘बूढ़ी काकी’, सभी कहानियों में उन्होंने यथार्थ को रखा है। उन्होंने खुद रूढ़ीवादी परम्पराओं को तोड़ा और बालविधवा शिवरानी देवी से विवाह कर समाज को यह बताने की कोशिश की कि रूढ़ीवादी परम्परा से ऊपर उठकर नारी को बराबरी का दर्जा और सम्मान देना होगा।
प्रेमचंद का पहला उपन्यास ‘सेवासदन’ था। यह 1918 ई. में प्रकाशित हुआ था। प्रेमचन्द युग की शुरुआत यहीं से हुई बतायी जाती है। उस समय भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और समाज सुधार आन्दोलन का काल था। समाज में व्याप्त कुरीतियों, अंधविश्वासों और धार्मिक आडम्बरों के खिलाफ विद्रोह की भावना पनप रही थी। प्रेमचन्द की रचनाओं ने आन्दोलन को गति देने का काम किया। प्रेमचन्द ने देवकीनन्दन खत्री की उस धारणा को भी नेस्तनाबूद कर दिया जिसमें वह उपन्यास को मनोरंजन और उपभोग का उपकरण मात्र मानते थे। प्रेमचन्द ने बता दिया कि उपन्यास सामाजिक जीवन का निर्माण करनेवाला एक चेतन प्रभाव है। प्रेमचन्द के उपन्यासों में सुधारवादी और आदर्शवादी रूप मिलता है। आदर्श, कर्तव्य, प्रेम, करुणा, समाज . सुधार, देशभक्ति, सत्याग्रह, अहिंसा, स्त्री-व्यथा, मध्यवर्गीय मनुष्य की त्रासदी, कृषक जीवन   की समस्याएं, मेहनतकश जनता का संघर्ष, सबकुछ है उनके उपन्यासों में। हालांकि आगे चलकर उन्होंने यथार्थ को ज्यादा तरजीह दी। यही वजह है कि गोदान में उनका   आदर्शवाद पूरी तरह बिखर गया और उसका स्थान क्रूर यथार्थ ने ले लिया। आचार्य नलिन विलोचन शर्मा के शब्दों में- ‘‘गोदान हिन्दी की ही नहीं, स्वयं प्रेमचन्द की भी एक अकेली   औपन्यासिक कृति है, जिसका विराट् विस्तार, निर्मम तटस्थता, यथार्थता और सरलता की पराकाष्ठा तक पहुंचकर अत्यंत विशिष्ट बन गयी है। ऐसी शैली किसी एक भारतीय   उपन्यास में नहीं मिलती।’’

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