केवल एक होने की नहीं बल्कि संगठित होने की भी ज़रूरत है’*
‘केवल एक होने की नहीं बल्कि संगठित होने की भी ज़रूरत है’*
*(संगठन के चुनाव का अधिकार आपको है, आप अपने मिज़ाज और स्वभाव के मुताबिक़ मौजूदा संगठनों में से किसी से जुड़ सकते हैं)*
*कलीमुल हफ़ीज़*
*मुसलमानों की समस्याओं का जब और जहाँ ज़िक्र आता है, उनके हल के तौर पर सबसे पहला हल यही पेश किया जाता है कि मुसलमान एक हो जाएँ तो सारी समस्याएँ हल हो सकती हैं। मैं भी इससे सहमत हूँ कि मुसलमानों को एक होना चाहिये। लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूँ कि केवल एक होने से समस्याएँ हल हो जाएँगी। एकता तो हम हर हफ़्ते जुमे के दिन जुमे की नमाज़ के मौक़े पर दिखाते हैं और सदियों से दिखाते चले आ रहे हैं, इसके अलावा दोनों ईदों पर इस एकता को बड़े पैमाने पर दिखाया जाता है और हज के मौक़े पर पूरी दुनिया की सतह पर एकता का नज़ारा पेश किया जाता है। अरफ़ात के मैदान से बड़ा इज्तिमा दुनिया में कहीं नहीं होता। इसके बावजूद हज से वापस होने वालों की समस्याएँ भी ज्यों की त्यों ही रहती हैं। क्योंकि एकता के ये दिखावे किसी मक़सद और नस्बुल-ऐन के तहत नहीं होते। इन मौक़ों पर मुसलमानों की समस्याओं पर बात नहीं होती, अगर होती भी है तो उनका अन्दाज़ भाषण का होता है। यह एकता अगर संगठन का रूप ले ले तो इंशाअल्लाह बेहतर नतीजे की उम्मीद की जा सकती है और समस्याएं भी हल हो सकती हैं।*
*संगठित होने का मतलब ये है कि हम ख़ुद किसी न किसी संगठन से जुड़ जाएँ। आम तौर पर उत्तर भारत में किसी संगठन से न जुड़ने को फ़ख़्र के क़ाबिल बात समझा जाता है, और सीना तानकर कहा जाता है कि अल्हम्दुलिल्लाह मेरा किसी संगठन से कोई ताल्लुक़ नहीं है। हालाँकि हदीसों में संगठन से एक बालिश्त भर दूर रहने को भी जाहिलियत का नाम दिया गया है। दक्षिणी भारत में ऐसा नहीं है। मैं एक बार केरल गया, वहाँ कुछ दिन रुका, मैंने जितने लोगों से मुलाक़ातें कीं वो सब किसी न किसी संगठन से जुड़े थे। उनके संगठन अलग-अलग थे, लेकिन वो सब किसी न किसी के साथ संगठित थे। मुझे एक शख़्स भी ऐसा नहीं मिला जो किसी संगठन से जुड़ा न हो।*
*संगठन के चुनाव का अधिकार आपको है। आप अपने मिज़ाज और स्वभाव के मुताबिक़ अपने इल्म और सलाहियत के मुताबिक़ अपना संगठन बना सकते हैं या मौजूदा संगठनों में से किसी से जुड़ सकते हैं। संगठन का बड़ा फ़ायदा ये है कि आप ख़ुद को अकेला महसूस नहीं करते, चाहे कुछ लोग ही सही आपके साथ होते हैं, आपके संगठन के लोग और सदस्यों की सोच, उनकी फ़िक्र और उनकी मंज़िल एक ही होती है। यहाँ तक कि उस मंज़िल को हासिल करने का तरीक़ा भी समान होता है। इसी लिये एक संगठन के सदस्यों के बीच मज़बूत रिश्ता और ताल्लुक़ होता है। वो एक-दूसरे के ग़म और ख़ुशी में भाइयों की तरह शरीक होते हैं।
दूसरा बड़ा फ़ायदा ये होता है कि आपकी सलाहियतें निखर जाती हैं, संगठन से जुड़े लोगों को एक-दूसरे के इल्म, तज्रिबे यहाँ तक कि पैसों से भी फ़ायदा पहुँचता है और एक दायरे ही में सही लेकिन समस्याएँ हल हो जाती हैं। एक और फ़ायदा ये भी होता है कि देश और अपनी क़ौम के लिये कुछ अच्छे काम करने का स्टेज मिल जाता है। मिसाल के तौर पर आप टीचर हैं तो टीचर्स के किसी संगठन से जुड़ जाइये, आपकी ख़ुद की इल्मी सलाहियतों में भी बढ़ोतरी होगी ही इसी के साथ-साथ आप अपने आस-पास की जाहिलियत को दूर करने में बड़ा रोल अदा कर सकते हैं।*
*आप एडवोकेट हैं तो अपने पेशे में तज्रिबों के साथ-साथ आपको कमज़ोरों और मज़लूमों की क़ानूनी मदद के मौक़े हासिल हो जाते हैं। आप सवाल करेंगे कि कोई करनेवाला ये काम तो अकेले भी कर सकता है। बेशक कर सकता है, मगर जब उस शख़्स को कोई तकलीफ़ पहुँचेगी या उसकी मुख़ालिफ़त की जाएगी तो उसकी ढारस बढ़ाने, उसकी हिमायत करने को कोई नहीं आएगा और वो शख़्स घबराकर अपनी सेवाओं से रुक कर बैठ जाएगा। संगठन में शामिल होकर फ़ायदे भी बढ़ जाते हैं, एक और एक मिलकर दो नहीं ग्यारह हो जाते हैं और उनके कामों के नतीजे भी ग्यारह गुना बढ़ जाते हैं।
भारतीय मुसलमानों के पिछड़ेपन की सबसे बड़ी वजह यही है कि इनके सलाहियतमन्द लोगों का इस्तेमाल क़ौम और मिल्लत की फ़लाह के लिये नहीं हो रहा है। हमारे बीच टीचर्स की बड़ी तादाद है, वकीलों की है, डॉक्टर्स की है और भी दूसरे सलाहियातमन्द लोग हैं लेकिन वो असंगठित हैं। अपने दफ़्तरों और घर में आराम से हैं, न वो ख़ुद आगे बढ़कर संगठित होते हैं और न कोई संगठन उनको जोड़ने का काम करता है। इसलिये उनकी सलाहियतें क़ौमी हितों और फ़ायदों में काम नहीं आतीं। जहाँ-जहाँ लोग संगठित हो रहे हैं वहाँ के हालात बदल रहे हैं।*
*उत्तर भारत में इस बारे में एक रुकावट यह है कि यहाँ मसलकवाद परवान चढ़ रहा है, टीचर्स और डॉक्टर्स और वकीलों का कोई संगठन है भी तो उस पर भी किसी मसलक का ठप्पा लगा हुआ है, लेकिन मैं यह अर्ज़ करता हूँ कि हर मसलक के लोग अपने बीच मौजूद बासलाहियत लोगों का ही संगठन बना लें और केवल अपने ही मसलक के लोगों को फ़ायदा पहुँचाएँ, तब भी देश और क़ौम का कुछ भला हो सकता है।*
*संगठित होने में एक बड़ी रुकावट संगठन के तक़ाज़ों से अन्जान होना भी है। संगठन कोई भी होगा उसका एक मक़सद होगा। कई मक़ासिद भी उसके सामने हो सकते हैं। मक़सद तक पहुँचने की स्ट्रैटेजी होगी, उसको चलाने के कुछ क़ायदे-क़ानून होंगे, जिनका सम्मान करना होगा। कुछ ओहदेदार होंगे, जिनकी बात माननी होगी। लेकिन उत्तर भारत के मुसलमानों की अक्सरियत को मैं देखता हूँ कि वो संगठित होने और किसी संगठन में शामिल होने से पहले उसका अध्यक्ष और सदर बनने की ख़ाहिश रखते हैं, उसके ओहदे और पदों पर क़ब्ज़ा चाहते हैं, हर शख़्स अमीर बनना चाहता है, नीचे रहकर काम करना कोई नहीं चाहता। अपने साथी को अपना अमीर मानने को तैयार नहीं होता।*
*यह मिज़ाज संगठन को अपने मक़ासिद से दूर कर देता है और इससे भी बढ़कर नुक़सान का कारण होता है। इसलिये ज़रूरी है कि हम संगठन और इज्तिमाइयत के तक़ाज़ों को जानते हों, उनकी पाबन्दी करना जानते हों। जहाँ एक तरफ़ हमें अपनी सलाहियतों की पहचान हो वहीँ दूसरी तरफ़ अपने भाइयों की सलाहियतों को भी तस्लीम करें। जहाँ हम ख़ुद को संगठन के लिये मुख़लिस समझते हों वहीँ दूसरी तरफ़ अपने संगठन के सदस्यों की वफ़ादारी पर भी शक न करें। संगठन से जुड़ने के लिये ज़रूरी है कि हम संगठन को केवल ज़ाती फ़ायदों की ख़ातिर इस्तेमाल न करें और उसके फ़ैसलों को ज़ाती अना और अहं का मसला न बनाएँ। जब हम संगठन को ज़ाती जायदाद समझने लगते हैं तो उसमें किसी के मशवरे को बेजा-दख़ल-अन्दाज़ी समझने लगते हैं। इस तरह संगठन अपना रास्ता भटक जाता है।*
*भारतीय मुसलमानों के मौजूदा हालात का तक़ाज़ा है कि मिल्लत का एक-एक शख़्स संगठित हो, अपनी सलाहियतों से दूसरों को फ़ायदा पहुँचाए, उस चराग़ का क्या फ़ायदा जो अपने आसपास के अँधेरे को भी दूर न कर सके। इस टेम्पोरेरी दुनिया के टेम्पोरेरी पदों और ओहदों के पीछे न भागें, ज़ाती अना और अहं की ख़ातिर क़ौमी हितों और फ़ायदों को क़ुर्बान न करें, ‘न करूँ और न करने दूँ’ के बजाय, ख़ुद भी करें और दूसरों को भी करने दें, अगर हौसला बढ़ाने वाला दिल नहीं है तो टाँग खींचने वाले हाथ भी न रखें, आपसी सहयोग का माहौल बनाएँ, ज़िम्मेदारों की इताअत और फ़रमाँबरदारी करके उनके हाथों को मज़बूत करें।*
*ये दुनिया बस कुछ ही दिन की है, यहाँ के ऐश और आराम ख़त्म हो जानेवाले हैं, इनकी ख़ातिर अपनी क़ब्र तंग करना और हमेशा की ज़िन्दगी के ऐश व आराम से हाथ धोना कहाँ की अक़लमन्दी है। मेरी ख़ाहिश तो है कि सारे मुसलमान किसी एक संगठन से जुड़ जाएँ, लेकिन मुझे मालूम है कि मेरी ये ख़ाहिश उन कामों की लिस्ट में शामिल हो जाएगी जो कभी पूरे नहीं होंगे, लेकिन यह तो सम्भव है कि हर शख़्स अपनी पसन्द के संगठन से या तो जुड़ जाए या अपना संगठन ख़ुद खड़ा करे। *
*मिल्लत के साथ राब्ता-ए-उस्तुवार रख।*
*पैवस्ता रह शजर से, उम्मीदे-बहार रख॥*
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