नफ़रत के बीज बोनेवालों को शायद उसके फल की कड़वाहट का अंदाज़ा नहीं है-कालीम हाफिज़

यति नरसिंहानन्द ने एक बार फिर क़ानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए दिल्ली में हिन्दू महापंचायत की सभा कर उसमें सभ्य और शांत हिंदुओं को खुलेआम मुसलमानों के ख़िलाफ़ हथियार उठाने की बात कही है। क्या उसका भाषण क़ानून का उल्लंघन ही नहीं?, क्या अदालत का अपमान भी है?

यति नरसिंहानन्द ने एक बार फिर क़ानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए दिल्ली में हिन्दू महापंचायत की सभा कर उसमें सभ्य और शांत हिंदुओं को खुलेआम मुसलमानों के ख़िलाफ़ हथियार उठाने की बात कही है। क्या उसका भाषण क़ानून का उल्लंघन ही नहीं?, क्या अदालत का अपमान भी है?

वो ख़ुद नफ़रत है और नफ़रत का कारोबार करता है।

 

नफ़रत के बीज बोनेवालों को शायद उसके फल की कड़वाहट का अंदाज़ा नहीं है।

*कलीमुल हफ़ीज़*

देश में इन दिनों नफ़रत का कारोबार उरूज पर है। देश के अलग-अलग हिस्सों से नफ़रत पर आधारित ख़बरें आ रही हैं। कर्नाटक में हिन्दू मेले में मुसलमानों की दुकानें लगाने पर पाबन्दी, मुस्लिम फ़नकारों के अंदर आने पर पाबन्दी, मंदिर के आस-पास मुलमानों को कारोबार न करने देने की धमकी, उत्तर प्रदेश और राजिस्थान में मस्जिदों के सामने भड़काऊ नारे बाज़ी, महाराष्ट्र में मस्जिदों से लाउडस्पीकर्स हटाने की माँग, जो इससे पहले देश के दूसरे राज्यों में भी उठ चुकी है।*

*दिल्ली में हज हाउस की तामीर का विरोध, नवरात्री के मौक़े पर गोश्त के कारोबार पर मुकम्मल पाबन्दी, मेरठ में बिरयानी के ठेले का उलट दिया जाना, उत्तराखंड सरकार का कॉमन सिविल कोड का शोशा छोड़ने, मध्य प्रदेश के एक कॉलेज में मुस्लिम छात्रों के नमाज़ पढ़ने पर हंगामा होने, हलाल मीट के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने, कर्नाटक के एक स्कूल में बेहिजाब लड़कियों के क्लास में बिठाने पर 7 टीचर्स को ससपेंड कर दिये जाने, जैसी घटनाएँ हर रोज़ अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बनने लगी हैं।*

*’कश्मीर फाइल्स’ ने भी आग में घी का काम किया है। मुस्लिम दुकानदारों से ख़रीद-बिक्री न करने का ऐलान पहले लॉकडाउन में हो चुका है। दाढ़ी टोपी वालों की लिंचिंग की घटनाएँ भी बीते दिनों में काफ़ी हुई हैं। लव-जिहाद के नाम पर भी सबक़ सिखाने की बात की जाती रही है। दिल्ली के जंतर-मंतर पर मुसलमानों को मारने और काटने की बात भी कोई ज़्यादा पुरानी नहीं है। अगर नफ़रत की यही रफ़्तार रही तो वो दिन बहुत क़रीब है जब मुसलमानों को बसों और ट्रेनों से उतार दिया जाएगा या उनके लिये अलग कोच की वयवस्था की जाएगी। जैसा कि अंग्रेज़ों के ज़माने में कालों और गोरों के लिए किया जाता था।*

*ताज़ा घटना देश की राजधानी दिल्ली की है, जहाँ यति नरसिंहानन्द ने एक बार फिर क़ानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए दिल्ली में हिन्दू महापंचायत की सभा कर उसमें सभ्य और शांत हिंदुओं को खुलेआम मुसलमानों के ख़िलाफ़ हथियार उठाने की बात कही है। क्या उसका भाषण क़ानून का उल्लंघन ही नहीं?, क्या अदालत का अपमान भी है? जबकि वह इसी अपराध में ज़मानत पर बाहर है, उसकी ज़मानत की शर्तों में ये शर्त मौजूद है कि वह अब ये दोबारा अपराध नहीं करेगा। क्या आज दिल्ली मुख्यमंत्री और दिल्ली की अदालतों के कानों में रुई पड़ी हुई है जो अब एक अतिवादी मनुवादी की ललकार नही सुनाई दे रही है? उमर खालिद और शरजील इमाम की वह आवाज़ जो उन लोगो ने कभी निकाला ही नहीं और उन लोगों की आवाज़ साशन, प्रसाशन सब को सुनाई दी और उन लोगों को उनके घरों से उठालिया गया  लेकिन उस  अतिवादी नरसिंहानंद की ज़हर भरी बातों से मालूम होता है कि उसे अदालत की कोई परवाह नहीं है। उसने एक ग्रुप के ख़िलाफ़ हथियार उठाने की बात कह कर समाज को बाँटने और अपने देश के ख़िलाफ़ जंग छेड़ने का अपराध किया है। जिस प्रीत सिंह ने ये कार्यक्रम आयोजित किया था, वह ख़ुद भी इसी अपराध में जेल जा चुका है और अब ज़मानत पर बाहर है।*

*समझ में नहीं आता कि नफ़रत के सौदागर ये बात क्यों कह रहे हैं कि अगर कोई मुसलमान प्रधानमंत्री बन गया तो आधे हिन्दू मसलमान हो जाएंगे, चालीस प्रतिशत क़त्ल कर दिए जाएँगे और दस प्रतिशत दूसरे मुल्कों में शरणार्थी बन जाएँगे। इस दावे में क्या सच्चाई है? जब मुसलमान आठ सौ साल तक शासक रहे तब तो ऐसा नहीं हुआ तो भला अब ऐसा कैसे हो सकता है जबकि भारत के मुसलमान इस समय सबसे ज़यादा कमज़ोर हैं?*

*इस देश में मुसलमान बादशाह भी रहे, मुसलमानों ने एक से अधिक शादियां भी कीं, बच्चे भी उनके यहाँ ज़्यादा हुए, इसके बावजूद हुन्दुओं से कम क्यों रह गए? अगर पकिस्तान और बांग्लादेश के मुसलमान भी शामिल कर लिए जाएँ तब भी मुसलमान 30 प्रतिशत से ज़्यादा नहीं होंगे। क्या वाक़ई भारत के हिन्दू इतने बेवकूफ़ हो गए हैं कि ऐसी बेतुकी बातों पर यक़ीन कर लेंगे। दर असल मज़हब का जूनून अक़्ल को अँधा कर देता है और ये अंधी अक़्ल कुछ भी सोचने की क्षमता नहीं रखती।

सवाल यह है कि यह कार्यक्रम देश की राजधानी में हो कैसे गया? पुलिस कहती है कि हमारी परमीशन नहीं थी, अगर परमीशन नहीं थी तो होने क्यों दिया गया। दिल्ली की यही पुलिस किसी मुस्लिम पार्टी का छोटा सा प्रोग्राम भी बग़ैर इजाज़त नहीं होने देती, वहां से कुर्सियां और माइक तक उठा कर ले जाती है। फिर यही पुलिस इस कार्यक्रम में खड़ी तमाशा क्यों देखती रही? पुलिस ने कार्रवाई क्यों नहीं की? इसके बजाय पुलिस ने उन पत्रकारों पर मुक़दमा ठोक दिया है जो इस कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग कर रहे थे, पुलिस का कहना है कि इन पत्रकारों ने यह भाषण लोगों तक पहुँचा कर क़ानून तोड़ा है।

सवाल यह भी है कि जिस अदालत का मज़ाक़ उड़ाया गया वो अदालत क्यों ख़ामोश है? सवाल ये भी है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री की ज़बान क्यों बंद है? क्या वह केवल मुसलमानों के मज़हबी लीडरों के ख़िलाफ़ ही खुलती है? सवाल यह भी है कि जाने माने धर्मनिरपेक्षतावादी कहाँ हैं? जो मुसलमानों से वोट लेते हैं? सवाल मीडिया से भी है कि उसे शर्जिल इमाम और उमर ख़ालिद के बयानात नज़र आते हैं लेकिन यति की बकवास सुनाई नहीं देती? क़ानून व्यवस्था को लेकर यही सवाल राजिस्थान की कांग्रेस सरकार पर भी खड़े होते हैं। कांग्रेस की क्या मजबूरी है कि उसने दंगाइयों पर अभी तक सख़्त कार्रवाई नहीं की है?(नफ़रत के बीज बोनेवालों को शायद उसके फल की कड़वाहट का अंदाज़ा नहीं है)*

Comments are closed.