न्यायप्रणाली से जनता का उठता विश्वास – अधिवक्ता की कलम से!
भ्रष्टाचार पर एवम अवमानना पर संज्ञान लेने में पपलू तथा विधिक रूप से नपुंसक हिजड़े बने हुए है। अधिवक्ता श्रीवास्तव
माननीय उच्च न्यायालय मध्यप्रदेश के माननीय चीफ जस्टिस महोदय तक कुंभकर्ण की भांति जागते हुए सोने का नाटक करते है-भ्रष्टाचार पर एवम अवमानना पर संज्ञान लेने में पपलू तथा विधिक रूप से नपुंसक हिजड़े बने हुए है।
“”संक्षिप्त टीका :- 455″”
“वर्तमान में रक्षक ही भक्षक बन रहे है।”
आर.के.श्रीवास
अधिवक्ता एवं जसेनि अपर जिला एवं सत्र न्यायधीश
देश का कोई व्यक्ति-नागरिक अंग्रेजी नही जानता है तथा उसका प्रतिनिधित्व उचित तौर पर नही किया जाने पर क्या उसे न्याय नहीं मिलेगा, यह संकल्पना केवल प्रकरण का निराकरण करने वाले पक्षकार के संबंध में है केवल मुंह देखकर तिलक लगाने अर्थात न्याय देने की परंपरा हो गई है।
जिस देश के इतिहास में एक पोस्टकार्ड लिखने वाले को न्याय देने का उल्लेख इतिहास में दर्ज है, अब वह न्यायपालिका की छवि लगभग धूमिल होती जा रही है, अब तो न्यायपालिका कतिपय जस्टिस द्वारा किए जा रहे अवैध, अनियमित, पक्षपात भेदभावपूर्ण भ्रष्ट कार्यों, तथा खुले भ्रष्टाचार के संबंध में ढोल नगाड़े बजाकर शंखनाद किया जावे तो भी माननीय सुप्रीम कोर्ट तथा माननीय उच्च न्यायालय मध्यप्रदेश के माननीय चीफ जस्टिस महोदय तक कुंभकर्ण की भांति जागते हुए सोने का नाटक करते है तथा भ्रष्टाचार पर एवम अवमानना पर संज्ञान लेने में पपलू तथा विधिक रूप से नपुंसक हिजड़े बने हुए है।
भ्रष्टाचार के संबंध में स्वयं माननीय सुप्रीम कोर्ट का उदाहरण सर्वश्रेष्ठ है इस संबंध में देश के माननीय सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस श्री हेमंत गुप्ता जो कि हजारों करोड़ों रुपए की मनी लांड्रिंग के आरोप में परिवार सहित लिप्त होकर देश की जनता तथा न्यायपालिका को खुला कत्था चुना लगा रहे है और ऐसे मामले में देश के माननीय सुप्रीम कोर्ट के विद्वान कहे जाने वाले चीफ जस्टिस महोदय के मुंह पर दही जमा होकर फेविकोल का पक्का जोड़ लगा हुआ है।
देश में किसी भी व्यक्ति व नागरिक के मौलिक व विधिक अधिकारों के हनन के संबंध भाषा की बाधा नहीं होना चाहिए, भाषा केवल अपने आचार विचार तथा अभिव्यक्ति का माध्यम है, संविधान का अनुच्छेद 13 यह कहता है कि राज्य ऐसी कोई विधि नही बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है, और इस खंड के उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी। इसी तरह संविधान का अनुच्छेद 39(क) समान न्याय एवम निशुल्क विधिक सहायता सुनिश्चित करने का दायित्व राज्य पर अधिरोपित करता है, ऐसी स्थिति में किसी नागरिक के विधिक तथा मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन का दायित्व न्यायालय पर है, किंतु न्यायालय स्वयं ही मौलिक तथा विधिक अधिकारों के रक्षक होने के बजाय मात्र भाषा के आधार पर भक्षक की भूमिका का निर्वाह कर भारतीय सविधान की तीसरी अनुसूची में ली गई शपथ का खुला उल्लंघन कर रही है।
संविधान के अनुच्छेद 350 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति किसी व्यथा के निवारण के लिए संघ या राज्य के किसी अधिकारी या प्राधिकारी को यथास्थिति संघ या राज्य में प्रयोग वाली किसी भाषा में अभ्यावेदन देने का अधिकार होगा।
उसके बावजूद भी ऐसी अंग्रेजो तथा हिटलर की भांति इस लोकतांत्रिक देश में माननीय महोदय द्वारा तानाशाही कार्यवाही एक संकीर्ण मानसिकता की परिचायक है।
उक्त लेख भी अवमानना का विषय होकर संज्ञान लिये जा सकने योग्य मुद्दा है।
जय भारत।
आर.के.श्रीवास
अधिवक्ता एवं जसेनि अपर जिला एवं सत्र न्यायधीश
40, जावरा रोड रतलाम म.प्र.
9425485815