यदि इब्लीस पाकिस्तान यार है तो अमेरिका का और बैरी चीन का बंधु है रूस, तो हिन्दुस्तान संग कौन?

कड़वी सच्चाई यही है कि मतलबगार होने के सिवाय इन दोनों से हिन्दुस्तान से संबध और ज्यादा कुछ नहीं है।

वैसे भी अमेरिकनों के लिए बाकी की दुनिया के कोई भी देश केवल एक बाजार है, इससे ज्यादा उसका कोई महत्व नहीं है।

यदि इब्लीस पाकिस्तान यार है तो अमेरिका का और बैरी चीन का बंधु है रूस, तो हिन्दुस्तान संग कौन?


डॉ.अतुल कुमार

हिन्दुस्तान के शासन प्रशासन ने द्विध्रवीय वैश्विक परिपेक्ष में कभी रूस और कभी अमेरिका को मददगार मुल्क होने का गीत गान किया है। हमारे नेता और पदासीन प्रशासनिक अधिकारी ही नहीं भारतीय जनता भी ख्वाबों ख्यालों में एक भ्रम पाले है। सच ही में सच कटु ही होता है। कड़वी सच्चाई यही है कि मतलबगार होने के सिवाय इन दोनों से हिन्दुस्तान से संबध और ज्यादा कुछ नहीं है। इसे हरे चश्में से देख मददगार न माने। केवल मनो इच्छा पर ही इनको हमलोग साथी समझते हैं। कम से कम यह पूरा तो सही कभी नहीं है।
रूस को ही लेते है। परमाणु ऊर्जाघर की तकनीक सहीत तेल और कई सैन्य साजो सामान रूस ने दिये हैं। मगर यह उसकी व्यवसायिक जरूरत है। पश्चिम के विकसित देशोें के कटु संबध में और प्रतिस्पर्धात्मक बाजार में रूस को उतना भरोसेमंद व्यवसायिक आसंमा नहीं मिला जो डेढ़ अरब जनसंख्या के राष्ट्रमें सहज उपलब्ध है। इसके अलावा जबरदस्ती की दोस्ती दिखाने में पहले भी नेताजी सुभाष के लिए रूस ने पूरा साथ नहीं दिया और पैंसठ की युद्ध विराम में ऐतिहासिक कंलक तो कम्यूनिस्ट रूस पर लगा ही है। चूकिं अमेरिका के दुश्मन के नाते रूस ने अमेरिका के पाकिस्तान की मदद करने पर अपने सैन्य सहयोग के लिए जिस पहला और आखिरी कारण से भारत को मदद दी है वह केवल उसके दुश्मन अमेरिकी प्रभुत्व को दक्षिण एशिया क्षेत्र में बढ़ने से रोकना ही था। रूसी तकनीकी और सैन्य हथियारों की आमद उसके अपने व्यवसायिक हित के लिए जरूरी मजबूरी है। संकट में ही सच्चे मित्र की परिक्षा होती है। यदि जिगरी दोस्त ही होता तो चीन को तुरंत गलवान और तिब्बत से पीछे हटने के लिए खुल कर दबाव देता।
दूसरी तरफ अमेरिका की दास्तां तो गोरों की आमल से ही हिन्द विरोधी रही है। वैसे भी अमेरिकन नस्ल के डीएनए को इतिहास को जानने वाले बखूबी बूझते है। आप भी जाने कि सोलहवीं सदी में यूरोप के लालची नृशंस सौदागरों की जमात ने तब के अमेरिका से सोने और खनीज धन की लूट के लिए इंसानियत से शर्मसार करते रेड इंडियन की खून की नदियों बहा कर दोलत बटोरी। आज अपनी नस्ल की पहचान गवां चुके अमेरिकों की यही दौलत मंद पीढ़ी अपने को विकसित दुनिया कहती है।
वैसे भी अमेरिकनों के लिए बाकी की दुनिया के कोई भी देश केवल एक बाजार है, इससे ज्यादा उसका कोई महत्व नहीं है। बिलकुल हालिया घटना यूक्रेन और इजराइल के युद्ध में अमेरिकनों की नीति निर्णय को बारीक नजर से देखें। जरा सा भी सामान्य ज्ञान रखने वाला तौल सकता है कि कहीं ना कहीं अमरिकनों ने अपने मंदी के दौर से निजात पाने के लिए यूक्रेन और इजराइल सहित नाटो समुह को हथियार खपाने के लिए ही सारा खेल रचा है।
इजराइल के साथ की आंतकी हमास के खात्मे की लड़ाई में देखा जा सकता है। अपने बारह सौ नागरिकों की आंतकी संगठन के द्वारा हत्या करने पर पूरे फिलिस्तीन को मिटा दिया। अमेरिका ने भरपूर साथ दिया और साथ ही इस लड़ाई को और जारी रख कर मध्य एशिया के मुल्कों के तेल के बाजार को मिटाने की योजना भी गोया कि अमेरिका की अंदरखाने हो सकती है। मन की तो यही बात है कि कोई तो योजना हो जो सही तरीके से गाजा पट्टी की कहानी को काश्मीर के लिए कराची और इस्लामाबाद तक लिख दे और एक नासूर से निजात दिलाये।
मानवता के साथ इतनी प्यार भरी नजर का पाखण्ड रखने वाले अमेरिका ने कभी काश्मीर में इस्लामिक आंतकी के हाथों निहत्तथे हिन्दुओं की नृशंस हत्याओं के साथ साढ़े तीन लाख पंडितों के गायब होने पर हिन्दुस्तान को कभी भी मदद नहीं दी और इससे उलट आंतक के गढ़ बने पाकिस्तान के कहे काश्मीर को विवादित बताते रहता है।
शांति की बात भी सबल के लिए ही शोभा देती है। युद्ध तो विभीषिका है। इसे दूर रख कर ही देश का विकास और नागरिकों के जीवन को सुरक्षा दी जा सकती है। पर इसे दब कर, डर कर, रूक कर या पीछे हट कर परे टालना कल क्या सही मानेगा? नेहरू ने यही किया था। आज का टालना कल को नासूर बनाने का काम ना हो जाए। पाकिस्तान और चीन से सामरिक संघर्ष को सरकाते रहते और सबक सिखाने की बात को केवल जुबानी और सपने की सोच तक सीमित रहने वाले कूटनीतज्ञ समय के साये में भले ही सही साबित हुए है। मगर स्वाभीमान के लिए गवारा नहीं है। गलवान या तिब्बत को लेकर चीन से और काश्मीर में फैलाये आंतक के जाल पर पाकिस्तान से सामरिक संघर्ष को टाल कर जयशंकर और मोदी की समझदारी दूरगामी सोच का सही निर्णय लिये जाने को मानी जा सकती है, मगर इस मुद्दे को कूटनीतिक हल के साथ भारत के हक में पाये जाने पर ही जीत माना जाएगा।
शांति की बात में यदि सामरिक तैयारियों में देरी और उपेक्षा की गयी तो भविष्य के लिए भारत को कमजोरों की कतार में ला देगा। चीन और पाकिस्तान के भारी सैन्य जखीरे के तेजी से बढ़ने के मुकाबले अपनी सामरिक क्षमताओं और को द्रूत गति से बढ़ाने की जरूरत है। नयी युद्ध तकनीक पर प्रगति करने के लिए प्रयास किया जाना होगा। शक्ति होगी तभी और केवल तभी शांति संभव है। दुनिया के तेजी से ताकतवर होते और देशों के मुकाबले जिस तरह से धीमी गति से सीमा क्षेत्रों और सेना के अंगों तो आगे बढ़ाने के लिए हुक्मरानों के साथ चींटी की चाल में चलते प्रशासन को मालूम होना चाहिए कि खतरा सिर पर है। इसमें कोई दो राय नहीं कि अपमान और दर्द सहन करने की असीम ताकत गंगा यमुना सतलज के पानी पी कर हमें मिल गयी है। वैसे कुछ तो यही लगता है कि हमारा तो है बस एक ही रखवाला है और वो है उपरवाला।

ZEA
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