“समग्रता में सामनता” कितना सत्य ?
सामाजिक अध्ययन बताता है कि एक बच्चा जन्म के साथ ही अमानता और गैरबराबरी का शिकार होता है।
इस सामाजिक विश्लेषण के केन्द्र में बाल समानता औऱ उससे जुड़ी समस्याओं के आलोक में उत्पादकता को विमर्श का केन्द्र बनाया गया है।
आरंभ से ही हो समानता की शुरुआत
डॉ दर्शनी प्रिय
यूनाइटेड नेशन अपने गरीबी और असमानता सबंधी सतत विकास लक्ष्य को लेकर केन्द्रित है। इस महत्वकांक्षी लक्ष्य को वर्ष 2030 तक पूरा किया जाना है। भारत भी इसी दिशा में अग्रसर है। इस उद्देश्य के सकेन्द्रन में योजनाओं के कार्यान्यवयन औऱ निष्पादन पर द्रुत गति से कार्य चल रहा है। मिलेनियम लक्ष्य के तौर पर घोषित इन योजनाओं को “समग्रता में सामनता” का नाम दिया गया है। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद पंचवर्षीय योजनाओं में आर्थिक और सामाजिक असमानता दूर करने संबंधी नीतियों को प्रमुखता से स्थान दिया गया और मुख्य धारा से कटे तबके तक आधारभूत सुविधायें पहुंचाने की कवायद शुरु हुई। गरीबी उन्मूलन इसका एक प्रमुक लक्ष्य रहा।इस दौरान आर्थिक समृद्धि लगातार केन्द्र में बनी रही। प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में उन्मूलन संबंधी नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन कर उसे जनोपयोगी बनाया गया लेकिन लगातार प्रयासों के बाद भी इस आर्थिक समानता लाने की इस कोशिश को अम्ली जामा नहीं पहनाया जा सका। भारत पिछले एक सदी से गरीबी उन्मूलन संबंधी अपने लक्ष्य को पूरा करने में जुटा है और इस मद हेतु अरबों–खरबों रुपयों की अनुदान सहायता नीति-नियंताओं द्वारा क्रियान्वयन के नाम पर आबंटित किया जाता रहा लेकिन परिणाम सिफर रहा। गरीबी औऱ असमानता संबंधी हालियां रिपोर्टे सच से पर्दा उठाती है। सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों पर अध्ययन करने वाली एक सोशल ऐजेंसी के अनुसार समाज में गरीबी और अमीरी तथा समानता औऱ असमानता के बीच की खाई पहले से कहीं ज्यादा चौड़ी औऱ गहरी हुई है। सरकार के प्रयासों औऱ विभिन्न योजनाओं के सफल निष्पादन के बावजूद सामाजिक अंतर को जड़ से खत्म नहीं किया जा सका है हां इसमें थोड़ा-बहुत बुनियादी फर्क जरुर आया है। एक चयनित आबादी पर किए गए सैंपल सर्वे को आधार बनाते हुए इस रिपोर्ट में ये बात भी उठाई गई है कि सामाजिक असमानता पाटने संबंधी कवायदें वयस्क आबादी के बरक्स बालआबादी पर ज्यादा प्रभावी है और इसके दूरगामी सकारात्मक परिणाम है। इस सामाजिक विश्लेषण के केन्द्र में बाल समानता औऱ उससे जुड़ी समस्याओं के आलोक में उत्पादकता को विमर्श का केन्द्र बनाया गया है।
आर्थिक समृद्धि की राह में कई नीतिगत कमियां भी है जिसे जमीनी स्तर पर खत्म किया जाना जरुरी है। इसे हम कुछ इस तरह समझ सकते है । सामाजिक अध्ययन बताता है कि एक बच्चा जन्म के साथ ही अमानता और गैरबराबरी का शिकार होता है। वह अपने निम्नस्तरीय सामाजिक स्थितियों के चलते कई बुनियादी सुविधाओं से वंचित रहता है जिसे सुनिश्तचित करने की जिम्मेवारी एक कल्याणकारी राज्य की होती है। मौलिक सुविधाओं से वंचित वही बच्चा आगे चलकर देश की उत्पादकता में अपना सौ फीसदी नहीं दे पाता क्योंकि वह न तो सेहतमंद है औऱ न हीं पेशेवर। इस लिहाज से वयस्क होने पर उसे समान स्तर पर लाने में पहले से ज्यादा निवेश की जरुरत होगी जिससे आर्थिक बोझ बढ़ेगा।
सैंपल आधारित आंकड़े इस सच की तस्दीक करते है कि भारत में पैदा होने वाले हर पांचवा बच्चा चाहे अस्पताल या देखभाल केन्द्र पर हो, गैरपेशेवर हाथों दवारा पैदा होता है। मतलब शिशुओं के जन्म से संबंधित 78.9 प्रतिशत मामलों में 18.6 प्रतिशत पैदाइश गैरपेशेवर स्वास्थयकर्मियों द्वारा किये जाते हैं। सामान्य स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित भारत का हर 5 में से 3 बच्चा कुपोषित है। सिर्फ 62 प्रतिशत बच्चों को ही कुल टीकाकरण मिल पाता है। लगभग 26.8 प्रतिशत महिलाओं की शादी 18 वर्ष पूरे करने से पहले ही कर दी जाती है। 15-49 वर्ष की 50.4 प्रतिशत गर्भस्थ महिलायें रक्तअल्पता की शिकार है। 15-19 वर्ष के उम्र की 7.9 प्रतिशत महिलायें या तो मां बन चुकी होती है या गर्भधारण कर चुकी होती है। 26.8 प्रतिशत लड़कियां 18 साल पूरी करने से पहले ही ब्याह दी जाती है। विश्लेषण बताते है कि जन्म के शुरुआती दो वर्षों के भीतर मिली बुनियादी औऱ मौलिक सुविधायें उम्र भर की सामाजिक,आर्थिक और शारीरिक कमियों औऱ असुविधाओं को मिटा सकती हैं। सामाजिक और परिवेशगत कारक बच्चों के समग्र विकास में अहम भूमिका निभाते हैं। अगर असमानता की इस खाई को छुटपन से ही पाटने की कोशिश की जाए तो आशाजनक परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। बच्चों को जन्म के बाद जीवन के किसी भी स्तर पर मौलिक सुविधाओं से वंचित रखे जाने के गहरे नाकारात्मक प्रभाव है भविष्य में यही आभाव गरीबी,बेरोजगारी और परिस्थितिजन्य प्रबंधकीय अक्षमता के रुप में सामने आती है। आर्थिक समृद्धि की राह में एक अन्य बड़ी समस्या है लिंगभेद।यदि महिलाओं को समान अधिकार देते हुए उन्हें भी पारिवारिक निर्णय में सहभागी बनाया जाए तो तस्वीर बदल सकती है। स्वतंत्र रुप से लिया गया उनका निर्णय सक्षम उन्हें कच्ची उम्र में गर्भाधारण से बचने और बच्चे के जन्म से जुड़ी समस्याओं को खत्म करने में मदद कर सकता है। लिंग समानता को बढ़ावा देने के कई निहितार्थ है इससे बाल-पोषण में उतरोत्तर वृद्धि कर शिशु मृत्यु दर को आसानी से घटाया जा सकता है।
आर्थिक समृद्धि के पुनीत लक्ष्य मे समाज के प्रत्येक आयु वर्ग और समुदाय को केन्द्र में रखा जाना चाहिए। लेकिन अक्सर इन महत्वकांक्षी योजनाओं में बाल समानता, शिशु-वृद्धिदर, शिशु-मृत्युदर, शिशु-पोषण,शिशु-जन्मदर आदि को अनदेखी की जाती है। दरअसल भारत ने संयुक्त राष्ट्र के स्थाई विकास लक्ष्यों में से मातृत्व मृत्यु दर को वर्ष 2030 तक प्रति लाख जीवित पर 70 तक लाने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की है। इस दिशा में देश निरंतर प्रयासरत भी है। नेशनल हेल्थ पॉलिसी के 2017 के मुताबिक वर्ष 2020 तक एमएमआर को प्रति लक्ष्य प्रति लाख 70 और स्थायी विकास लक्ष्य प्रति लाख 70 को 2030 तक हासिल करना है। जरुरी है की वयस्क स्तर पर विभिन्न योजनाओं में भारी निवेश की बजाए शैशव स्तर पर आंकड़ों के लक्ष्य तक पहुंचने के प्रयास किए जाये तभी सतत् विकास के दूरगामी लक्ष्य को भेदा जा सकेगा और आर्थिक उत्पादकता में वृद्धि की जा सकेगी और ये तभी संभव है जब छुटपन से ही बच्चों के समग्र विकास पर नजर रखी जाए।
स्वतंत्रता के बाद भारत ने आर्थिक विकास के लिए समाजवादी आर्थिक नीतियों का अनुसरण किया । तीन दशक तक भारत की प्रति व्यक्ति आय केवल 1 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ी। देश की जनस्ख्या मे बच्चों की संख्या 37 प्रतिशत के करीब है । 2020 तक देश की औसत आयु 29 वर्ष होगी। इस लिहाज से सामाजिक औऱ आर्थिक परिवर्तन के साथ सतत् निवेश और समग्र भागीदारी की जरुरत होगी । साथ ही स्वास्थय,शिक्षा एवं रोजगार से संबंधित मुद्दों पर व्यापक रुप से काम करने की भी आवश्यकता होगी। जिन क्षेत्रों का प्रत्यक्ष प्रभाव आनेवाले भविष्य़ पर पड़ने वाला है,विशेष रुप से उन क्षेत्रों से संबंधित फैसलों में आगामी पीढ़ी को सहभागी बनाया जाना है। गरीबी को समूल-नष्ट कर आर्थिक समृद्धि के लिए जरुरी है कि बच्चों के स्वास्थ्य,शिक्षा,पोषण औऱ उनके शारीरिक विकास संबंधी लक्ष्यों को पहले पूरा किया जाए ताकि एक स्वस्थ्य औऱ सेहतमंद पौध खड़ी हो सके जो देश की प्रगति में सचेष्ट रुप से भागीदारी करे। दीगर है कि जन्म के शुरुआती वर्षों में सतत् चहुंमुखी निवेश से इच्छित परिणाम प्राप्त किए जा सकेंगे जिससे मानव संसाधन संबंधी अल्प लागत से प्रत्यक्ष तौर पर देश की आर्थिक सेहत सुधरेगी साथ ही आर्थिक समानता संबंधी मिलेनियम लक्ष्य को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ा जा सकेगा।
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