गालिब का जन्मदिन और उनकी यादें ।
न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता,डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता।।
“कोई मेरे दिल से पूछे, तेरे तीर-ए-नीमकश को
ये खलिश कहां से होती – जो जिगर के पार होता” कहाँ मयखाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहाँ वाइज़””
पर इतना जानते है कल वो जाता था कि हम निकले ।।
‘ग़ालिब के जन्मदिन पर उनको याद करते हैं
हैं और भी दुनिया में सुख़न्वर बहुत अच्छे हैं।।
सैयद आसिफ इमाम काकवी
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और..मिर्जा असदुल्लाह खां गालिब. ये सिर्फ एक नाम नहीं, पूरी कायनात है, पूरा यूनिवर्स जिसमें उर्दू और फारसी जुबान अपनी तमाम नजाकत, नफासत, कैफियत, शिद्दत, इश्क-ओ-मुहब्बत, पेचीदगी, रवानगी, रोमांस और सूफीज्म के साथ इठलाती घूमती हैं. दबीर-उल-मुल्क़ और नज़्म-उद-दौला का खिताब मिला बाद में उन्हे “मिर्ज़ा नोशा” का खिताब भी मिला. वे शहंशाह के दरबार मे एक महत्वपुर्ण दरबारी थे. ग़ालिब और असद नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे…… पुरानी दिल्ली का बल्लिमरान, जहां उर्दू के शायर या यूं कहिए उर्दू के शेक्सपीयर मिर्जा गालिब एक लंबे अरसे तक रहे। आइए हम याद कर रहे हैं उसी महान शायर को.उ र्दू के मशहूर शायर मिर्जा गालिब की तारीफ में अब मैं क्या कहूं, जिंदगी के हर पल, हर मौके पर गालिब का शेर बस ऐसे ही जुबां पर आ जाता है. मिसाल के तौर पर, जब इंतजार की घड़ी लंबी हो जाती है, तब बेचैनी होती है, घबराहट होती है. तब गालिब का ये शेर खुद बा खुद जुबां पर आता है. गालिब की पैदाइश 27 दिसंबर, 1797 को आगरा में हुई थी। यानी करीब 225 सौ साल पहले। लेकिन गालिब के मिसरे कहावतों और मुहावरों की शक्ल में आज भी रोजमर्रा की बोलचाल में चहलकदमी करते हैं।
“कोई मेरे दिल से पूछे, तेरे तीर-ए-नीमकश को
ये खलिश कहां से होती, जो जिगर के पार होता”
या फिर
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले ।
निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये है लेकिन
बहुत बे- आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले ।।
और तो और – मैं तो कभी-कभी ये भी गुनगुना लेता हूं , “कहाँ मयखाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहाँ वाइज़ ।
पर इतना जानते है कल वो जाता था कि हम निकले ।।
मैं तो कभी- कभी ये भी गुनगुना लेता हूं।
“न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता,
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता”।
गालिब को बहुत लोगों ने पढ़ा, उन पर लिखा, रिसर्च की, उनकी शायरी के संकलन छापे. लेकिन मौजूदा वक्त में सबसे पहले याद आता है जाने-माने फिल्मकार और गीतकार गुलजार का 1988 में दूरदर्शन पर आया सीरियल मिर्जा गालिब। उसकी शुरुआत गुलजार कुछ यूं करते हैं।
उम्र भर गालिब ये ही भुल करता रहा –
धुल चेहरे पे थी और आईना साफ करता रहा..!
गालिब के मिसरे कहावतों और मुहावरों की शक्ल में आज भी रोजमर्रा की बोलचाल में चहलकदमी करते हैं. इम्तिहान के किसी खराब नतीजे या फिर दफ्तर में हुए खराब अप्रेजल के बाद आपने किसी दोस्त को ये कहते सुना ही होगा:
हम को मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,
दिल के खुश रखने को ‘गालिब’ ये खयाल अच्छा है।।
या फिर
उन के देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक,
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है.
और तो और
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मिरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले.
मैं तो कभी-कभी ये भी गुनगुना लेता हूं
” न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता,
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता”।।
दिल्ली के आखिरी बादशाह बहादुरशाह जफर अपने वक्त के मशहूर शायर भी थे. उनके जमाने यानी 18वीं शताब्दी में जब देश में मुगलिया सल्तनत का चांद डूब रहा था और अंग्रेजी हुकूमत का सूरज सिर उठा रहा था, उसी दौरान गालिब, दाग, मोमिन और जौक जैसे शायरों ने अपने बेहतरीन कलाम लिखे. बहादुरशाह जफर ने ही गालिब को मिर्जा नोशा की उपाधि दी थी जिसके बाद गालिब के साथ ‘मिर्जा ’ जुड़ गया. गालिब की हाजिरजवाबी और फाकामस्ती के किस्से भी खासे मशहूर हैं लेकिन उनका जिक्र कभी और. 15 फरवरी, 1869 को मिर्जा गालिब का इंतकाल हो गया। लेकिन ऐसी शख्सियत मरती कहां हैं. वो तो जिंदा रहती हैं किस्सों में, किताबों में, अल्फाजों में, अहसासों में, ख्वाबों में, ख्वाहिशों में, जहन में, जिंदगी में।
हुई मुद्दत कि ‘गालिब’ मर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना, कि यूं होता तो क्या होता.