नेहरूजी की जयंती – एक यादगार पल 

   नेहरूजी की जयंती – एक यादगार पल 

चौधरी यतेन्द्र सिंह

जवाहर लाल नेहरू 14 नवम्बर 1889 को प्रयागराज में उनका जन्म हुआ और 27 मई 1964 को उनका निधन हुआ ।

नेहरू जी का संबंध कश्मीर के कॉल Kaul परिवार से है । 1716 में मुग़ल बादशाह फ़र्रुख़्सियर ने उन्हें दिल्ली बुला लिया था। वह बादशाह कलाकारों, रचनाकारों की बहुत कद्र करता था। कॉल परिवार दिल्ली में जहां रहता था, वहीं पास में एक नहर बहती थी इसलिए कॉल परिवार नहर वाला या नेहरू परिवार कहलाने लगा।

 1964 से लेकर 2021 तक, इन 57 सालों में नेहरू जी के ऊपर बहुत कुछ लिखा गया है, लिखा जा रहा है। मैं नेहरू जी के व्यक्तित्व की व्याख्या करने की अपनी हैसियत नहीं समझता पर जब नेहरू जी के संबंध में अनेक आपत्तिजनक बात सुनी तो उनके बारे में जानने की जिज्ञासा हुई तभी एक दो किताब पढ़ी तो यह पाया कि नेहरू जी को, उनकी शैक्षिक योग्यता, दूरदृष्टिता व धर्म निरपेक्ष छवि सहयोगात्मक सोच व सबको साथ लेकर चलने की नीति दक्षिणपंथी संगठनों के लिए परेशानी का कारण बन गई। जो लोग केवल हिंदू, उसमें भी ब्राहमणत्व का वर्चस्व चाहते रहे हैं, उन्हें यह बात हज़म नहीं हुई। यहीं से हिंदू राष्ट्र की पोषक बिरादरी ने उन्हें मुस्लिम समर्थक घोषित कर दिया और चरित्रहनन की सीमा तक बदनाम करना शुरू कर दिया। उन लोगों की बुद्धि पर तरस आता है जो इस दुष्प्रचार को सच मान लेते हैं। वैसे तो RSS की शाखाओं में रोज़ नेहरू जी के ख़िलाफ़ भ्रामक प्रचार व झूठ बरसाया जाता है फिर भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दुष्प्रचार में दो मुद्दे मुख्य रूप से उछाले जाते हैं।
 1.नेहरू जी ने सरदार पटेल को कोई महत्व नहीं दिया और
 2.नेहरू जी कश्मीर समस्या के लिए ज़िम्मेदार हैं।
नेहरू जी द्वारा सरदार पटेल को सम्मान देने की जहां तक बात है तो नेहरू जी व इंदिरा जी के जमाने में सरदार पटेल के नाम पर हज़ारों की संख्या में शैक्षणिक संस्थाएँ खुली हैं, लगभग देश के हर ज़िले में उनके नाम पर स्कूल और कालेज हैं। सरदार पटेल और नेहरू जी के संबंधों को लेकर RSS ने मनगढ़ंत भ्रम फैलाया है, उन्हें एक दूसरे का विरोधी बतलाया है । जबकि असलियत इसके बिलकुल उलट है। आज़ादी की जंग हो या आज़ादी के बाद ऐसा कोई निर्णय नहीं हुआ जिसमें दोनों की सहमति न हो ।
1.“आज़ादी के बाद नेहरू जी ने अपना जो पहला मंत्रिमंडल बनाया उसमें कांग्रेस के बहुमत के बावजूद क़ानून के ज्ञाता डा0 बाबा साहब अम्बेडकर को क़ानून मंत्री और अपने कटु आलोचक श्यामा प्रसाद मुकर्ज़ी को कश्मीर मामलों का मंत्री बनाया। यह निर्णय उनकी सबको साथ लेकर चलने की नीति को दर्शाता है । वही श्यामा प्रसाद मुकर्जी की सेना कश्मीर के लिए नेहरू जी को कोसती है । “अपने मंत्रीमंडल में सरदार पटेल को शामिल करने के लिए नेहरू व पटेल के बीच जो पत्र व्यवहार हुआ वह सब कुछ कह देता है।
1 अगस्त 1947 को नेहरू जी ने सरदार पटेल को लिखा, चूँकि औपचारिकताओं का दौर चल रहा है, इसलिए मैं आपको नए मंत्रीमंडल में शामिल होने के लिए औपचारिक रूप से आमंत्रित कर रहा हूँ। आप मंत्रीमंडल के आधार स्तम्भ हैं । इसके जवाब में
3 अगस्त 1947 को सरदार साहब ने जो लिखा वह यहाँ प्रस्तुत है। पटेल ने लिखा,” एक दूसरे के प्रति हमारे जुड़ाव व लगाव तथा 30 साल अविरल सहयात्रा में किसी औपचारिकता की कोई गुंजाइश नहीं है। मेरी सेवाएँ आजीवन आपके लिए पूर्ण रूप से प्रस्तुत हैं और आप मेरी निष्ठा व समर्पण में कभी कोई कमी नहीं पाएँगे क्योंकि देश में कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है, जिसने आपके समान त्याग व बलिदान किया हो। आपकी और मेरी सहभागिता अटूट है और यही हमारी मज़बूती भी है।“
 दोनों ओर का पत्र व्यवहार यह दर्शाता  हैं कि वे एक दूसरे का बहुत सम्मान करते थे और उनकी एक आंतरिक बांडिंग रही थी ।
2. अगस्त से अक्तूबर 1947 के बीच जब भारत और पाकिस्तान के बीच प्रथम युद्ध चल रहा था, नेहरू जी व देश के ग्रह मंत्री सरदार पटेल दोनों संशय में थे कि कश्मीर पर क़ब्ज़ा रखा जाए या छोड़ दिया जाए ? राजिंदर सरीन ने अपनी पुस्तक “पाकिस्तान- द इंडिया फ़ैक्टर” ( पेज -218) में पटेल व पाकिस्तान के मंत्री अब्दुर्रब निश्तर की वार्ता प्रस्तुत की है। इसके मुताबिक़ पटेल ने कहा, “भाई, यह हैदराबाद व जूनागढ़ की बात छोड़ो, आप तो कश्मीर की बात करो। आप कश्मीर ले लो और मामला ख़त्म करो। इसके आगे भी सरीन ने ऐसी ही एक घटना का ब्यौरा दिया है। उसमें पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाक़त अली और गवर्नर जनरल माउंट बेटन के साथ हुई बैठक का ज़िक्र है, जिसमें पाकिस्तानी सासंद सरदार शौक़त हयात भी मौजूद थे । बैठक में लार्ड माउंट बेटन ने जब पटेल के प्रस्ताव का ज़िक्र किया कि अगर पाकिस्तान हैदराबाद की ज़िद छोड़ दे तो भारत उन्हें कश्मीर देने को तैयार है ।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री  लियाक़त अली ने फ़ौरन जवाब दिया कि “ सरदार सहाब, क्या आपका दिमाग़ चल गया है? हम एक ऐसा राज्य (हैदराबाद) क्यों छोड़ दे जो पंजाब से भी बड़ा है और उसके बदले कुछ पहाड़ियाँ ले लें ?
आज 74 साल बाद दोनों तरफ़ के ‘शिकारियों’ व राजनैतिक शूर्माओं  को याद दिलाना चाहिए कि तब पटेल ने हैदराबाद के बदले कश्मीर देने का प्रस्ताव रखा था और पाकिस्तान ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया था ।नेहरू जी कश्मीर को इस तरह अलग करने का विरोध कर रहे थे । उन्हें लगता था कि इस तरह कश्मीर को छोड़ देना द्वी राष्ट्र सिद्धांत को स्वीकार करने जैसा होगा और जनता में यह संदेश जाएगा कि बहुसंख्यक़ समाज के राजनीतिज्ञ जाति पर आधारित बँटवारे के समर्थक हैं।
देश के विकास की जहां तक बात है तो वे चाहते थे कि शासन तंत्र में वैज्ञानिक सोच के साथ सामूहिक चेतना का भी समावेश रहे ताकि समतावादी आधुनिक भारत का निर्माण किया जा सके। उनका यह विचार था कि भारतीय परम्पराओं की क़ीमत पर आधुनिकता अंगीकार नहीं की जाएगी पर वे समय के साथ चलना भी ज़रूरी समझते थे । वे  तकनीकी शिक्षा के प्रबल समर्थक थे इसलिए उन्होंने अनेक तकनीकी संस्थानों की स्थापना की । नेहरू जी आर्थिक उन्नति के लिए संतुलित औधोगीकरण के साथ समतावाद, सामूहिक विकास और धर्म निरपेक्षता को आवश्यक तत्व मानकर चल रहे थे।
 यह उन लोगों के लिए है जो मोदी जी को रॉबिन हुड समझते हैं और जिन्हें लगता है कि मोदी जी तो महामानव हैं । मोदी जी से पहले कोई ऐसा नहीं हुआ है । जो पीढ़ी 10-15 साल में जवान हुई है उसने तो केवल मोदी जी को ही देखा है ।
आज़ादी के बाद देश का पहला आम चुनाव कांग्रेस ने नेहरू जी की अगुवाई में लड़ा। उस चुनाव में नेहरू जी ने लगभग 40 हज़ार किलोमीटर की यात्राएँ की तथा क़रीब तीन करोड़ लोगों को सीधा संबोधित किया। यह संख्या तब भारत की जनसंख्या का दसवाँ भाग थी “धन्यवाद मोदी का राग अलापने वाले तथाकथित देशप्रेमियों को यह समझना चाहिए कि अपने समय और कार्यकाल में सभी मेहनत करते हैं। मोदी जी कोई अनोखे व्यक्ति नहीं है। पहले लोग भी लोकप्रिय रहे हैं,
आज से 74  साल पहले के नेताओं ने किन परिस्थितियों में निर्णय लिए, उसे तो उस जमाने का व्यक्ति ही अच्छे से समझ सकता है

Comments are closed.