उत्तर प्रदेश की हालत क्यों ख़राब है ?

मैं मोदी जी से यह पूछना चाहता हूँ कि ये उद्घाटन,लोकार्पण चुनाव के समय ही क्यों याद किए जाते हैं? यदि यही काम चार साल पहले शुरू होते तो अब तक पूरे हो गए होते।

उत्तर प्रदेश की हालत क्यों ख़राब है ?

चौधरी यतेंद्र सिंह

आजकल मोदी जी की कृपा उत्तर प्रदेश पर बरस रही है। पिछले एक महीने में क़रीब 20-25 योजनाओं का उद्घाटन या लोकार्पण हुआ है। और यह सिलसिला रूका नहीं है बल्कि मोदी के विशेष सलाहकार अमित शाह भी कालिज और विश्वविद्यालय का उद्घाटन कर चुके हैं और निरंतर कर रहे हैं। मोदी जी के लिए उत्तर प्रदेश का चुनाव जीवन मरण का सवाल बन गया है । उन्हें लगता है कि यदि उत्तर प्रदेश हाथ से निकल गया तो 2024 में तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के सपने धाराशायी हो जाएँगे । हर तीसरे दिन उत्तर प्रदेश का दौरा करना उनकी बेचैनी का प्रतीक है। पिछले साढ़े चार साल से उत्तर प्रदेश का जो विकास सोया पड़ा था उसमें अचानक जागृती आ गई है। यह पहली बार मोदी की के राज में ही देखने को मिल रहा है कि अब सरकारी कार्यक्रम के साथ एक ज़बरदस्त रैली आयोजित की जाती है। पहले भी सरकार के लोग देश विदेशों में और सरकारी आयोजनों में जाते थे लेकिन कभी रैली नहीं करते थे। चुनाव के अलावा कभी कोई नेता अथवा प्रधानमंत्री रैली की नहीं होती थी। अब तो आए दिन रैली करने का एक नया तजुर्बा है।
कहा जाता है कि मोदी जी की एक रैली का खर्च लगभग 50 करोड़ है जिसमें उनकी सुरक्षा से लेकर लोगों को उनकी रैली के लिए ढोकर लाने का खर्चा भी शामिल है। यह तो अकेले मोदी जी की रैली की बात है।
मोदी जी के अलावा अमित शाह, पार्टी अध्यक्ष जे पी नड्डा, अनुराग ठाकुर और मुख्यमंत्री योगी की निरंतर रैलियाँ हो रही हैं। इसके अलावा देश के लगभग सभी अख़बारों में बड़े बड़े विज्ञापन ड़िए जा रहे हैं । योजनाओं पर होने वाले खर्चे को इस तरह बताया जाता है कि जैसे मोदी जी उस खर्च को,अपनी जेब से दे रहे हैं।
मैं मोदी जी से यह पूछना चाहता हूँ कि ये उद्घाटन,लोकार्पण चुनाव के समय ही क्यों याद किए जाते हैं? यदि यही काम चार साल पहले शुरू होते तो अब तक पूरे हो गए होते।
मुझे लगता है कि मोदी जी को यह विश्वास हो गया लगता है कि जनता की याददाश्त बहुत कमजोर है और जनता को ताज़ा ताज़ा बात ही याद रहती है।
अब यदि उत्तर प्रदेश चुनाव पर नज़र डालें और सरकारी नीति आयोग के सर्वे पर भरोसा करें तो उत्तर प्रदेश हर मामले में फिसड्डी है। और इसका मुख्य कारण स्वयं योगी जी हैं क्योंकि जैसी नेता की सोच होती है वह उसी के अनुसार काम करता है। वस्तुतः योगी जी की रूचि शिक्षा, स्वास्थ्य आदि में न होकर मंदिर के आसपास घूमती है। उनकी प्राथमिकताओं में कालेज या विश्वविद्यालय के स्थान पर मंदिर, पूजा पाठ, हवन यज्ञ आदि हैं। उन्हें आक्सीजन से ज़्यादा कावरियों पर फूल बरसाना महत्वपूर्ण लगता है। उन्हें ग़रीबों के जीवन सुधारने की जगह अयोध्या में 50 लाख दीए जलाना अधिक आवश्यक लगता है। उन्हें युवाओं को रोज़गार के स्थान पर भिखमंगे बनाने में रस आता है।
आज के दिन उत्तर प्रदेश के लगभग 15 करोड़ लोग सरकारी राशन पर निर्भर है। और शर्म की बात यह है कि योगी जी के अलावा देश के प्रधानमंत्री राशन बाँटने को एक उपलब्धि बताते हैं। जिस प्रदेश की कुल 22 करोड़ की आबादी में 15 करोड़ लोग सरकारी राशन पर निर्भर हों उसके तथाकथित विकास की स्थिति पर प्रधानमंत्री का इतराना हास्यास्पद लगता है।
प्रदेश का युवा रोज़गार के लिए सड़क पर है, प्रदेश से चुना गया सांसद हत्या का आरोपी होने के बावजूद पद पर बिराजमान है, आए दिन महिलाओं और बच्चियों का शोषण हो रहा है, तथाकथित साधु सन्यासी एक सम्प्रदाय के ख़िलाफ़ ज़हर उगल रहे हैं। स्नातक और परा स्नातक 500 रुपए का श्रमिंक कार्ड बनाने के लिए मजबूर हैं।
आख़िर उत्तर प्रदेश की स्थिति इतनी ख़राब क्यों है तो इसका मुख्य और सीधा जवाब है कि प्रधानमंत्री व योगी जी दोनों की यह सोच है कि जब चुनाव हिंदू मुसलमान करने से जीता जा सकता है तो फिर बाक़ी कुछ करने की ज़रूरत क्या है?
अब यह प्रदेश की जनता को तय करना है कि ऐसे व्यक्ति को फिर मौक़ा देगी जो आधुनिक विज्ञान के प्रति उदासीन है, जो मंदिरवादी राजनीति का पोषक है और जो एक सम्प्रदाय के प्रति प्रतिशोध का भाव रखता है या फिर ऐसी राजनीति को महत्व देती है जो शिक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई, रोज़गार व क़ानून व्यवस्था के प्रति सजग हो और जो जनहित के प्रति संवेदनशील हो।
वैसे इतनी पीढ़ा और मुसीबतें झेलने के बावजूद यदि जनता हिंदू मुसलमान के झाँसे में आती है तो जनता को अपने विवेक को एक बार से कुरेदना पड़ेगा। जनता को न केवल अपने भविष्य बल्कि अपने बच्चों के भविष्य के लिए यह सोचना पड़ेगा कि उनके लिए क्या उचित है? एक ऐसा समाज जिसमें सब मिल- झूलकर रहते हों, जो दूसरे की पीढ़ा को अपनी अपनी पीढ़ा समझे या फिर ऐसा समाज जिसमें केवल एक जाति,एक भाषा,एक राज्य के लोग रहते हों।
एकरंगा तो बगीचा भी अच्छा नहीं लगता,सब रंग हैं,तभी वह बगीचा है।
समाज एकजुट होगा तो देश उन्नति करेगा।
मैं उन लोगों से,जो जोश में आकर होश खो बैठते हैं और धार्मिक उन्माद में उलझ जाते हैं, एक बहुत सीधा सा सवाल करना चाहता हूँ कि व्यक्तिगत स्तर पर कितने लोगों को अल्पसंख्यकों से दिक़्क़त है? कितने लोगों को मुसलमानों से परेशानी है?
यदि निष्पक्ष रूप से मंथन किया जाए तो मुझे ऐसा लगता है कि व्यक्तिगत स्तर पर देश के बहुसंखयक समाज को किसी भी बिरादरी से कोई दिक़्क़त नहीं है।

अंग्रेज चले गए यदि अब भी उनकी नीति अर्थात् “बाँटो और राज करो“की नीति कामयाब होती है तो फिर दोष नेता का नहीं बल्कि जनता का है।

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