गांधीजी के अहिंसा और सत्य निष्ठा के घोर विरोधी थे सावरकर
कट्टरपंथी हिंदुत्ववादियोंने साजिश रची और सनातनी गांधी की हत्या को अंजाम दिया।
यह कट्टरपंथी लोग जब जब हिंदू मुस्लिम एकता को तोडने की कोशिश करते है और उनको लडाने के लिये उपद्रव पैदा करते है, तब तब उनके सामने गांधी खडे होते है।
गांधीजी के अहिंसा और सत्य निष्ठा के घोर विरोधी थे सावरकर
लेखक – विवेकानंद माथने वरिष्ठ समाजसेवी
‘हे राम’ राम नाम का अजपाजप करनेवाले गांधीकी यह अंतिम पुकार थी, जब उनकी छाती पर तीन गोलियां दागी गई और उनकी आत्मा शरीर से मुक्त हो गई। आखिरकार हिंदू मुस्लिम एकता के लिये उन्हे अपनी जान कुर्बान करनी पडी। कट्टरपंथी हिंदुत्ववादियोंने साजिश रची और सनातनी गांधी की हत्या को अंजाम दिया। यह कट्टरपंथी लोग जब जब हिंदू मुस्लिम एकता को तोडने की कोशिश करते है और उनको लडाने के लिये उपद्रव पैदा करते है, तब तब उनके सामने गांधी खडे होते है। लेकिन उनकी खुन्नस इतनी जादा है कि वह गांधीकी प्रतिमाओं पर आज भी गोलियां डागते है, गालियां देते है, उनके हत्यारों का सम्मान करते है। वह यह भूल जाते है कि उन्होंने केवल गांधी के शरीर को मारा है, उनके विचारों को वह कभी नही मार सकते।
गांधी हत्या में सावरकर आरोपी थे और उनपर केस भी चली। लेकिन पर्याप्त सबूतों के अभाव में सावरकर को छोडा गया। लेकिन आज भी जब गांधीजी की बात आती है, हिंदू कट्टरपंथी गांधीजी के सामने सावरकर को खडा करने की कोशिश करते है। हमे समझना होगा कि आखिर सावरकर गांधीजी के विरोधी क्यों थे और सावरकर ने गांधीजी की हत्या क्यों करवाई। दोनों हिंदू थे। दोनों बैरिस्टर थे। जैसे गांधी का उद्देश्य हिंदूस्थान की आजादी था वैसे शुरु में सावरकर का उद्देश्य भी हिंदूस्थान की आजादी ही था। फिर दोनों के बीच किस बातका संघर्ष था यह समझना जरुरी है।
सन 1888 में 19 साल के गांधी बैरिस्टर बनने के लिये लंदन गये। बैरिस्टर बनकर वकालत के लिये 1893 में दक्षिण आफ्रिका गये। वहां हिंदुस्थानियों पर हो रहे अन्याय के खिलाफ अंग्रेजी सरकार से संघर्ष किया। दक्षिण आफ्रिका के आंदोलन में सत्याग्रह के नये नये प्रयोग किये और सफलता प्राप्त की। 1915 में वह भारत में लौट आये। 1920 से जीवन के अंतिम क्षण तक कांग्रेस के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया। और अंग्रेजों को हिंदुस्थान छोडने के लिये मजबूर किया।
गांधीजी ने स्वतंत्रता आंदोलन में सत्य और अहिंसा का रास्ता अपनाकर असहयोग, सविनय अवज्ञा, सत्याग्रह आदि आंदोलन के नये हथियार दिये। दक्षिण आफ्रिका और हिंदुस्थान में आंदोलन के द्वारा उन्होंने मानव जाति के ज्ञात इतिहास में पहली बार अहिंसक क्रांति की नींव रखी। अहिंसा केवल व्यक्तिगत जीवन साधाना का विषय नही है, बल्कि उसका उपयोग सार्वजनिक जीवन में करके व्यवस्था परिवर्तन किया जा सकता है यह उनकी मान्यता उन्होंने सिद्ध की।
गांधी अंग्रेजी की हुकूमत के साथ साथ उनकी साम्राज्यवादी, भौतिकवादी सोच से मुक्ति चाहते थे। अंग्रेजियत से मुक्ति चाहते है। गांधीजी का अंतिम ध्येय शोषणमुक्त समाज, अहिंसक समाज रचना की स्थापना करना था और उसे सत्य और अहिंसा के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है, ऐसा उनका अदम्य विश्वास था। अपना पूरा जीवन उन्होंने इसी साधना में लगाया। 1909 तक उनके मनमें हिंद स्वराज की तस्वीर तैयार हो चुकी थी।
दूसरी तरफ 1906 में 23 सालके सावरकर बैरिस्टर बनने के लिये भाई को साथ लेकर लंदन गये। बैरिस्टर बने। अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के लिये तत्कालीन क्रांतिकारियों की तरह सशस्त्र क्रांति का सपना वह देखते थे। हिंदुस्थान और दुनियां के क्रांति का इतिहास पढकर सशस्त्र कांति के द्वारा ही आजादी मिल सकती है, ऐसा उनका विश्वास था। लंदन में वे क्रांतिकारी समूह में शामिल हुये। तत्कालीन परिस्थिति में अंग्रेजी हुकूमत का सामना करना साधारण कार्य नही था, अन्य क्रांतिकारियों की तरह वह भी वीर तो थे ही। सावरकर तर्कशील थे, उत्कृष्ट वक्ता, लेखक थे। लेकिन हिंसा, चाणाक्य की साम, दाम, दंड, भेद नीति पर उनका विश्वास था। अपने उद्देश्य पूर्ति के लिये छल कपट करना उन्हे स्वीकार था।
अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के लिये हिंसक गतिविधियां करने हेतु सावरकर विदेश से हिंदुस्थान में हथियार भेजते थे। लेकिन नासिक के कलेक्टर जैक्सन की हत्या में सावरकरके द्वारा भेजा पिस्तौल प्राप्त होने से 1909 में वह पकडे गये। ‘राजद्रोह’ और ‘राजा के विरुद्ध उकसाने’ के आरोप में उन्हे और उनके भाई को 1910 में पहली और 1911 में दूसरी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। कालापानी की सजा के लिये उन्हे अंदमान के सेल्यूलर जेल में भेजा गया। उनकी संपत्ति जब्त की गई। 1921 तक वे सेल्यूलर जेल में रहे। 1921 और 1922 को अलीपुर और रत्नागिरी में कारावास में रखा गया। 6 जनवरी 1924 से रत्नागिरी में नजरकैद में रहे। 1937 में नजरबंदी से पूर्णत: रिहा हुये और 1937 से 6 साल वह हिंदूमहासभा के अध्यक्ष रहे।
1911 से लेकर 1920 तक जेल से रिहाई के लिये उन्होंने अंग्रेजी सरकार से अनेक माफीनामें लिखे। जनवरी 1920 में उनके भाई डॉ. नारायण सावरकर नें गांधीजी को पत्र लिखकर सावरकर के स्वास्थ के लिये सेल्युलर जेल से अन्य जगह भेजने के लिये प्रयास करने के लिये विनंती की। गांधीजी ने मई 1920 में यंग इंडिया में निवेदन जारी किया था। अंग्रेजी हुकूमत की खिलाफत न करने और किसी भी राजनीतिक आंदोलनमें शामिल न होने की शर्त पर सावरकर को 1921 में उन्हे सेल्यूलर जेल से हिंदुस्थान की जेल भेजा गया और बादमें उन्हे रत्नागिरि में नजरबंद करके रखा गया। उम्र के 54 साल तक वह जेल और नजरबंद रहे और पूर्ण रिहाई के बाद 1937 से 6 साल वह हिंदूसभा के अध्यक्ष रहे। और हिंदू महासभा के माध्यम सांप्रदायिक विद्वेश फैलाने का काम करते रहे।
आज भी यह सवाल उठाया जा रहा है कि आखिर माफी के लिये उन्होंने प्रयास क्यों किया? क्या वह मौत से डर गये थे? या फिर जेल से रिहाई के लिये वह उनकी योजना का हिस्सा था? अगर वह डर गये थे तो वह उनके वीरत्व पर प्रश्न उठाता है और अगर वह उनकी कूटनीतिक योजना का हिस्सा था, तब भी उनपर सवाल उठता है क्योंकि जेल से रिहाई के बाद भी उन्होंने रिहाई के शर्तों का पूरा पालन किया और जीवनभर स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा नही लिया। बल्कि अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ नीति अपनाकर उन्होंने आजीवन हिंदूओं को मुसलमानों के खिलाफ खडा करने का काम किया।
गांधी और सावरकर के बीच मुख्य संघर्ष विचारों का था। 4 मार्च 1926 को दिये भाषण में गांधी जी कहते है कि मै लंदन में अनेक क्रांतिवादियों से विचार विनिमय करता था। श्यामजी कृष्णवर्मा और सावरकर आदि मुझसे कहा करते थे कि आपका कथन ‘गीता’ और ‘रामायण’ के विरुद्ध ही है। उस समय मुझे लगता था कि यदि व्यास मुनिने ब्रम्हज्ञान का उपदेश करने के लिये ऐसे युद्ध के दृष्टान्त की योजना न की होती तो कितना अच्छा होता। क्योंकि जब अच्छे अच्छे विद्वान और गहराई से विचार करनेवाले व्यक्ति ही ‘भगवद्गीता’ का ऐसा अर्थ निकालते है तो साधारण आदमी के विषय में क्या कहां जा सकता है। जिसे सर्वशास्त्रोंका दोहन कहा गया है, उपनिषद कहा गया है, यदि उसका ऐसा उलटा अर्थ निकाला जा सकता है तो व्यास भगवानको चाहिये था कि वे कोई दूसरा योग्य दृष्टांन्त चुनकर यह उपदेश देते। (#1)
1 मार्च 1927 को गांधीजी बीमार सावरकर को रत्नागिरी में उनके निवास स्थानपर मिलने गये और कहां कि आप जानते ही है कि सत्यप्रेमी तथा सत्य के लिये प्राणतक न्योछावर कर सकनेवाले व्यक्ति के रुपमें आपके लिये मेरे मनमें कितना आदर है। इसके अतिरिक्त अंतत: हम दोनों का ध्येय भी एक है और मै चाहूंगा कि उन सभी बातों के संबंध में आप मुझसे पत्र व्यवहार करे जिनमें आपका मुझसे मतभेद है और दूसरी बातों के बारेंमें भी लिखे। मै जानता हूं कि आप रत्नागिरीसे बाहर नही जा सकते, इसलिये यदि जरुरी हो तो इन बातोंपर जी भरकर बातचीत करने के लिये मुझे दो तीन दिनका समय निकालकर आपके पास आकर रहना भी नही अखरेगा। सावरकरने इसके लिये धन्यवाद देते हुये कहा कि आप स्वतंत्र है और मै बंधन में हूं। मै आपको भी अपनी जैसी हालत में नही डालना चाहता। फिर भी मै आपसे पत्र व्यवहार अवश्य करुंगा। (#2)
शंकरराव देव को 20 जुलाई 1937 में लिखे पत्र गांधीजी कहते है कि श्री. सावरकर बंधु कमसे कम यह तो जानते है कि हममें चाहे कुछ सिद्धांतों को लेकर जो भी मतभेद रहे हो, लेकिन मेरी कभी यह इच्छा नही हो सकती थी कि वे जेलमें ही पडे रहे। जब मै यह कहूंगा कि मेरी ताकत में जो कुछ भी था, वह सब मैने उनकी रिहाई के लिये अपने ढंग से किया तो शायद डॉ. सावरकर भी मेरी बातका अनुमोदन करेंगे। और बैरिस्टर को शायद याद होगा कि जब पहली बार हम लंदन में मिले थे, तब हमारे संबंध कितने मधुर थे और कैसे जब कोई आगे नही आ रहा था तब मैने उस सभा की अध्यक्षता की थी, जो उनके सन्मान में लंदन में हुई थी। (#3)
हरिभाऊ जी फाटक को 12 अक्टूबर 1939 में लिखे पत्र में गांधीजी कहते है कि तात्याजी (न.चि. केलकर) तथा उनके मित्रों का मन जीतने की मैने बहुत कोशिश की है। सावरकर के घर मै पैदल चलकर गया। उनका मन जीतने का मैने विशेष रुपमें प्रयास किया, किंतु असफल रहा। अब चूंकि तुमने मेरी बात सुन ली है, अब तुम्ही मुझे बताओ कि उन लोगों को जीतने का मुझे कौन सा जतन करना चाहिये। (#4)
सावरकर पर आरोप था कि गांधी हत्या में वे शामिल थे और उनके उकसाने पर ही गोडसे ने गांधीजी की हत्या की। भलेही सबूतों के अभाव में उनका हत्या में शामिल होना साबित नही हुआ हो लेकिन उनके द्वारा जीवनभर गांधीजी का विरोध और तत्कालिन घटनाक्रम के आधार पर उन्हें आरोपमुक्त नही किया जा सकता।
गांधी ने सावरकर के प्रति हमेशा सद्भाव रखा। उन्होंने सावरकर बंधुओं के सेल्यूलर जेल से रिहाई के लिये लिखा। गांधीजी ने सावरकर को जोडने के विशेष प्रयास किये। लेकिन इसके बावजूद सावरकर ने गांधीजी का हमेशा विरोध किया। उनके विरुद्ध लोगों को भडकाते रहे। उन्हे हिंदू विरोधी, दलित विरोधी साबित करने की कोशिश करते रहे। उनकी सत्यनिष्ठा और अहिंसा के विचारों के संदर्भ में कुतर्क करके समाज को भ्रमित करते रहे।
आज जब हर जगह अहिंसा या हिंसा का सवाल उठाया जा रहा है, तब यह समझने की जरुरत है कि क्रांति का सच्चा रास्ता क्या है? और सच यही है कि हिंसा के द्वारा सत्तांतरण संभव है, क्रांति नही। अहिंसा से ही क्रांति संभव है। बशर्ते कि अहिंसा केवल नीति नही, निष्ठा होनी चाहिये। क्रांति एक प्रक्रिया है, जो मनुष्य के मनमें बुनियादी बदलाव लाती है। और उसे सिखाती है कि मनुष्य एक है, हम सब एक है, उसमें देश, रंग, जाती, धर्म के आधार पर भेदभाव के लिये कोई जगह नही है। मिलजूल कर रहे, किसीका शोषण ना हो, प्रकृति का दोहन ना हो। और आज भी इस अहिंसक क्रांति की राह गांधीजी हमें दिखा रहे है।
गांधी और सावरकर, दोनों ने हिंदू धर्मग्रंथों का अध्ययन किया था। धर्मग्रंथों को दोनों ने अपने अपने नज़रियेंसे देखा, समझा और उसपर अमल किया। गांधी ने उसमें सत्यवचनी राम, हरिश्चंद्र पाया। गीता में अहिंसा का संदेश पाया, आत्मा का अमरत्व पाया। सावरकर ने उसमें उद्देश्य प्राप्ति के लिये हिंसा देखी, असत्य देखा, छल कपट देखा, साम, दाम, दंड, भेद देखा।
रामायण, महाभारत दो पक्ष के बीच का संघर्ष है। एक पक्ष राम का, कृष्ण का, पाडवों का है। सत्य का, अहिंसा का, निर्भयता का, आत्मशक्ति का है। वही दूसरा पक्ष रावण का, कंस का, दुर्योधन का है। असत्य का, हिंसा का, सत्तालोलुपता का, छल-कपट का है। हिंदू धर्मियों को यह समझना होगा की वह राम, कृष्ण, पांडवों के पक्ष में खडे है कि रावण, कंस, दुर्योधन के पक्ष में खडे है। गांधी ने सत्य, अहिंसा, निर्भयता अपनाकर सिद्ध किया कि राम के प्रतिनिधि थे।
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