ठहरा हुआ पानी ( स्थगितं जलम्)

समय की भी यही मांग हैं ,जो विभिन्न प्रक्रमो में परिवर्तन की मांग कर रहा है।

लेकिन याद हो कि कोरोनाकाल में चल रहे लॉक डाउन में आपने किन स्नेही ,इंसानियत व भावनाओ , अपनो ओर प्रगतिवर्धक किन कदमो को रोका व खोया हैं ।

ठहरा हुआ पानी ( स्थगितं जलम्)

लेखिका-निवेदिता मुकुल सक्सेना झाबुआ मध्यप्रदेश

विगत दो वर्षों का विश्व त्रासदी काल, समय के अंशो को परिवर्तन की लहर दे गया और सभी को बहुत कुछ सीखा गया ।कहते है समयानुसार स्वयं में परिवर्तन अति आवश्यक हैं चाहे वह व्यक्तिगत हो या सामाजिक लेकिन अगर हितोपकारी है तो निश्चित रूप से नदिया की धारा बन जाना उपयुक्त रहता हैं।
वर्तमान में ये ही ठहरा हुआ पानी कई हानिकारक सूक्ष्मजीवों का भंडार बना रहा है। ठहरा पानी या अनिष्कासित जल जिसे निकलने का रास्ता नही मिलता ओर वह वही इक्कट्ठा होते रहता हैं और असंख्य जीवाणुओं ,विषाणुओं ,कवक को जन्म देते हुए एक सड़ांध उत्पन्न करता हैं। यही सड़ांध व सूक्ष्मजीव रोगों को विकसित करते है इसी तरह आज यही रोग समयानुसार बदलाव की दस्तक दे रहा ।
जहाँ हम आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने के प्रयास की गुहार कर रहे वही नवीनतम सोच को स्वीकार करने से हिचकिचाहट क्यों? जबकि वहां से शुरू होती हैं नए सफलतम परिणामो की बयार । नदियों का सतत बहता पानी गन्दगी को भी किनारे लगा देता हैं और सिर्फ स्वच्छ पानी की धारा को साथ लेकर चलता हैं ।
समय की भी यही मांग हैं ,जो विभिन्न प्रक्रमो में परिवर्तन की मांग कर रहा है। हम सब यही सोचेंगे कि आखिर जरूरत क्या है जब सब ठीक चल ही तो रहा । लेकिन याद हो कि कोरोनाकाल में चल रहे लॉक डाउन में आपने किन स्नेही ,इंसानियत व भावनाओ , अपनो ओर प्रगतिवर्धक किन कदमो को रोका व खोया हैं ।
हाल ही में एक फ़िल्म देखी *याक इन द क्लासरूम* जिसमे अनिच्छा से बना एक शिक्षक जो भूटान के आधुनिक संसाधन व बिजली विहीन दूरस्थ पहाड़ी इलाके में जाकर असंख्य चुनोतियो को स्वीकारते हुए विद्यार्थीयो के लिए शिक्षण सामग्री से लेकर रुचिपूर्ण शिक्षा का माहौल बनाता हैं ।कही ना कही उसे महसूस होता हैं कि इन पहाड़ियों की पगडंडियों में ज्ञानवर्धक सरल रास्ता बनाना अत्यन्त आवश्यक हैं । वही उसे वहां के रहवासी मित्रवत सहयोग व उच्चतम सम्मान प्रदान करते है व उस क्षेत्र के बच्चे व बड़े उन शिक्षक को *भविष्य की चाबी* मानते हैं उनका मानना है प्रकृति का बचाव व स्वयं और देश की प्रगति सिर्फ एक शिक्षक कर सकता हैं ।लेकिन चरम पर आकर वह शिक्षण को बोझिल समझते हुए अपनी रुचि को महत्व देते हुए शिक्षण से किनारा कर लेता हैं और अंत मे उसे ग्लानि भी होती हैं ।
वर्तमान में राजनीति भी उसी ओर खड़ी हैं ,आखिर राजनीति से ही सत्ता में आकर देश का संचालन होता हैं तो निश्चित है सिर्फ बेतुके वायदे-कसमे जीत का आधार आखिर कब तक बनाते रहेंगे तब जबकि आज जनता स्वयम की *जीवन की सुरक्षा व सिर्फ शांति के *जीवनयापन* की मांग कर रही हैं ।वही स्थिति यह भी दिख रही जहा रुके पानी का सड़ांध बढ़ता जा रहा। नित नए लोग आ रहे उसे दूर से देखते हुए उस रुके पानी को साफ करने की बात भी कर रहे और उस पानी के चारो ओर घूम रहे। बात वही की वही ठहरे पानी की तरह, एक राग झूठे मुद्दे गरीबो की सेवा का तदनंतर स्वच्छ राजनीति शायद एक उपहास ही हैं।
वही शिक्षा में बदलाव की अति आवश्यकता को देखते हुए नई शिक्षा पद्धति आयी जो देश के भविष्य को उज्ज्वल व आत्मनिर्भर बनाने की पहल पर है लेकिन इस हेतु शिक्षकों व शिक्षा तंत्र को पुराने शिक्षण पद्धति को छोड शिक्षा में नवाचार की धारा से जुड़ना होगा। हालांकि यह चुनोती हैं लेकिन ये चुनोतियाँ भी बस शुरुआती दौर में रहेगी ततपश्चात देश का भविष्य सरलतम शिक्षण पद्धति से जुड कर देश के विकास को प्रगतिशील बनाएगा। बस मेहनत का इकतारा एक साथ बजना चाहिये। जिम्मेदारी हमारी जब तक विचारों में सीखने का ओर समय के साथ बदलने का जज़्बा नही होगा तब तक पानी मे हानिकारक सूक्ष्मजीव पनपते रहेगे

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