सूफी संतों की ही दुआ है – जहां आज भी सभ्यता संस्कार जीवित है

सूफ़ी संतों के कलाम भाव प्रधान होते हैं इसलिए जीवन पर अपनी गहरी छाप छोड़ जाते हैं- ताबिश वारसी

सूफ़ी संतों के कलाम भाव प्रधान होते हैं इसलिए जीवन पर अपनी गहरी छाप छोड़ जाते हैं- ताबिश वारसी

सूफी संतों की ही दुआ है – जहां आज भी सभ्यता संस्कार जीवित है

सूफ़ी संतों के कलाम भाव प्रधान होते हैं इसलिए जीवन पर अपनी गहरी छाप छोड़ जाते हैं,

ताबिश वारसी

आस्ताना मैनेजर:(हज़रत जमाल शाह वारसी)

हिंदुस्तान में सूफ़ियों का आगमन एक ख़ुश्बू की तरह हुआ था। वह ख़ुश्बू जो यहाँ की आब-ओ-हवा और इसकी संस्कृति में ऐसी घुली की पूरा हिंदुस्तान आज भी इस साझी संस्कृति की ख़ुश्बू से महक रहा है। सूफ़ी हिंदुस्तान में नफ़रत की तलवार नहीं बल्कि प्रेम का सूई धागा लेकर दाख़िल हुए थे।हिंदुस्तान में सूफ़ियों का पूरा इतिहास इसी सूई धोग का इतिहास है।सूफ़ियों ने न सिर्फ़ हिंदुस्तान में गंगा-जमुनी तहज़ीब का पैरहन बनकर तैयार किया बल्कि ख़ुद गुदड़ी धारण करने वाले इन सूफ़ियों ने हिंदुस्तानी संस्कृति के पैराहन में अपने रंग-बिरंगे काव्य के जड़ी-गोटे भी लगाए।
सूफ़ी अपने मुर्शिद में फ़ना हो जाता है और फ़ना होकर बक़ा भी रहता है। मुर्शिद उसके नफ़्स को ख़त्म करके उस के व्यक्तित्व पर स्वयं आरूढ़ हो जाता है. यह अवस्था सूफ़ी साधना की चरम अवस्थाओं में से एक मानी जाती है।
इसी अवस्था का वर्णन करते हुए जमाल शाह फरमाते हैं….


गुरु का स्थान सर्वोपरि होता है. गुरु ही अपने शिष्य को परमात्मा से मिलन का मार्ग बताता है और उस मार्ग पर चलते हुए उसकी निगरानी भी करता है। हज़रत जमाल जमाल शाह वारसी सिलसिला वारसीया के एक कामिल फ़क़ीर हुए।
सिलसिला वारसिया हिंदुस्तान में जिस तेजी से फैला वह आश्चर्यचकित करने वाला है. वारसिया सिलसिला हज़रत वारिस पाक से शुरू हुआ और इस में सब धर्मों के लोग शामिल हैं.हज़रत वारिस अली शाह हजरत मोहम्मद के नवासे हजरत इमाम हुसैन इब्ने अली व हज़रत फातमा ज़हरा की 26वीं पुष्ट में हैं।
उन्होंने सभी को नाम परिवर्तन व धर्म परिवर्तन किए बिना ही अपने संदेशों का पालन करने के लिए प्रेरित किया। उनके सभी अनुयायी अपने नाम के साथ ‘वारसी’ उपनामजोड़ते हैं। जैसे राजा पंचम सिंह ठाकुर वारसी, टामिशाह साहब वारसी, रोमशाह वारसी, पंडित दीनदायाल शाह वारसी, लाला कन्हैया लालजी वारसी, पंडित खुशहालदास वारसी,फैजू शाह वारसी, बेदम शाह वारसी आदि।

हज़रत जमाल शाह वारसी के पिता का नाम हज़रत शाह करामात हुसैन था. हज़रत जमाल शाह वारसी का जन्म 29 मोहर्रम 1956 ई. को बिहार के जहानाबाद काको में हुआ.आप की माता ने आपका नाम गुलाम हुसैन रखा.आप का मिज़ाज़ बचपन से फखिराना था आपने कम उम्र में ही घर छोड़ दिया था और मुर्शिद की तलाश में निकल पड़े
सन 2008 में महान सूफ़ी संत हज़रत वारिस पाक के आस्ताने के हल्काए फोखरा कमिटि के नाज़िमे आला हक़ीम साबिर शाह वारसी ने एहराम (लंगोट) प्रदान किया और आप ग़ुलाम हुसैन से जमाल शाह वारसी हो गए है.जब आप वरसिया सिलसिले में दाख़िल हुए तब आप को जमाल शाह की उपाधि मिली. उसके बाद अपने पीर का सम्मान करते हुए जमाल शाह वारसी ने बाक़ी ज़िन्दगी पीला, सब्ज़, शरबती और भूरे रंग का ही एहराम धारण किया।

आस्ताना मैनेजर ताबिश वारसी बताते हैं की हुज़ूर ने अपनी पूरी ज़िंदगी दुसरो की मदद करने में गुज़ार दी मानो खिदमाते ख़ल्क़ ही उनकी ज़िंदगी का असल मक़सद था,
मस्जिदों में जैसे ही अज़ान खत्म होता आप फ़ौरन इबादत को खड़े हो जाते आपके हाथों में हमेशा तस्बीह रहती थी,मोहर्रम के आशूरा के दिन आप ग़मगीन रहते थे आप पूरा दिन इमाम हुसैन की याद में विलीन रहते थे..
दूर दराज़ गाँव से लोग हुज़ूर के ताज़िया, सिपर की ज़ियारत करने उनके घर पर तशरीफ़ लाते है
जब भी मैं उन्हें नए कपड़े पहनने की फरमाइश करता आप मना कर देते आपने पूरी ज़िंदगी तकिया नही लगाया और ना ही पलंग पर सोते थे बल्के ज़मीन पर ही सोना पसंद करते थे,
जब सूफ़ी इस संसार सागर में अपने आप को फंसा हुआ पाता है और अपने मुर्शिद से पार लगाने की गुहार करता है,
कई दफ़ा यूँ होता है कि हमारे भीतर ही सवालों की कई गांठे होती है जिनके विषय में हमें भी नहीं पता होता. जब ये गांठें आत्मा को आच्छादित कर लेती हैं तो हमें एक विषाद का अनुभव होने लगता है, वहीं अगर कुछ देखते-सुनते हुए कुछ सवालों के जवाब मिल जाते हैं और अन्दर कोई गाँठ खुल जाती है तब एक अलग प्रकार की ख़ुशी का अनुभव होता है .यह प्रक्रिया सतत चलती रहती है और हमें इस का पता सिर्फ़ ख़ुशी और विषाद की अवस्था से चलता है. उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ. एक आतंरिक ख़ुशी ने दिल को हलके से छुआ और छू कर अनंत में विलीन हो गयी।

27नवम्बर 2020 ई. को शनिवार को सुबह 7 बजे हज़रत जमाल शाह वारसी इस जगती के पालने से कूच कर गए।
आप का विसाल बिहार के जहानाबाद जिला के काको मे हुआ.उन्हें उनके पिता के खानकाह के समीप कब्रिस्तान में सुपुर्द ए ख़ाक कर दिए गए .हिंदुस्तान के कोने कोने से आपके चाहने वाले आपके के दर्शन करने आपके आस्ताने पर आते हैं और अपनी मन्नते पेश करते हैं और मुरादे माँगते है

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