एक धूप थी जो साथ गई आफताब के

अलमा लतीफ शम्सी साहब के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। यह शख्सियत हर क्षेत्र में उभरकर सामने आई, लेकिन दुनिया ने उन्हें हर बार भुला दिया।

यह अफसोस मुझे बार-बार परेशान करता है कि हम जीवन में ऐसी शख्सियतों की कीमत का अंदाजा नहीं लगा पाते, लेकिन जब वे हमारे बीच नहीं रहतीं, तो हमें पछतावा होता है

एक धूप थी जो साथ गई आफताब के
स्वर्गीय अल्मा लतीफ शम्सी
(तारिक़ मोहिउद्दीन शर्मिला)

इधर लगातार एक ही शख्सियत पर अखबारों की मेहरबानी जारी है। पत्रकार और बुद्धिजीवी उन पर लेख दर लेख लिख रहे हैं। बिहार के राज्यपाल खुद उनके प्रति संवेदना व्यक्त करने उनके निवास स्थान पर पधार रहे हैं। मुख्यमंत्री, सांसद, विधायक, कवि, साहित्यकार और विभिन्न विचारक व राजनेताओं के शोक संदेश प्राप्त हो रहे हैं। उनके घर पर लोगों की भारी भीड़ उमड़ी हुई है। आखिर उनमें ऐसा क्या खास था? इन लोगों के सुनहरे विचार जब हम समेटते हैं, तो एक ऐसी तस्वीर उभरती है जो निस्संदेह प्रशंसा योग्य लगती है। एक ही शख्सियत के कई कारनामे हमारी नजरों के सामने आते हैं। राजनीतिक नेता, स्वतंत्रता सेनानी, कवि और साहित्यकार—हर कोई उन्हें अलग-अलग रूप में प्रस्तुत कर रहा है। आज वे हमारे बीच नहीं हैं। उनकी अनुपस्थिति का अहसास बेहद गहरा है। हमारे पास धैर्य रखने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है।

यह अफसोस मुझे बार-बार परेशान करता है कि हम जीवन में ऐसी शख्सियतों की कीमत का अंदाजा नहीं लगा पाते, लेकिन जब वे हमारे बीच नहीं रहतीं, तो हमें पछतावा होता है। अलमा लतीफ शम्सी साहब के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। यह शख्सियत हर क्षेत्र में उभरकर सामने आई, लेकिन दुनिया ने उन्हें हर बार भुला दिया। दोस्त सिर्फ उनके कारनामों की कहानियां ही सुनते रहे। दिल्ली से जामिया, अलीगढ़ से अजीमाबाद और काको तक की कहानियां, ज़माने के हर उतार-चढ़ाव से गुज़रते हुए यह किरदार एक अफसाने के नायक से अधिक कुछ हासिल नहीं कर सका। हम उनके कार्यों की सराहना करके ही रह गए।

आज जब मैं इस शख्सियत का जायजा लेने बैठा हूं, तो मुझे उनके जीवन से जुड़ी कई कहानियां उभरती नजर आ रही हैं। राजनीति का इतिहास, साहित्य का इतिहास, और काको का इतिहास—यहां मैं हर राज से पर्दा उठाना चाहता हूं।

एक ऐसा गांव, जहां उस समय ज़रूरत की चीजें बमुश्किल उपलब्ध थीं। वहां कलम की स्याही पन्ना दर पन्ना इतिहास लिखने के लिए बेकरार थी। अब्दुल अज़ीज़ शम्सी साहब काको गांव के एक बड़े ज़मींदार थे। उन्होंने अपनी तरफ से हर संभव कोशिश की कि इस गांव में सुविधाएं पहुंचाई जाएं। इसमें स्कूल और मदरसे का निर्माण भी शामिल था। नतीजतन, शिक्षा और साहित्य की रोशनी से काको जगमगा उठा। वली काकवी, अता काकवी, और अरशद काकवी जैसे व्यक्तित्वों ने साहित्य में जो योगदान दिया, उस पर उर्दू साहित्य गर्व करता है। आज भी यहां कई चमकते सितारे मौजूद हैं।

अब्दुल अज़ीज़ शम्सी साहब के इन उपकारों का बदला आम जनता शायद नहीं चुका सकती थी, लेकिन कुदरत ने उन्हें अहमद दाऊद शम्सी के रूप में एक ऐसा तोहफा दिया, जिसका कोई विकल्प नहीं था। अब्दुल अज़ीज़ शम्सी की छह संतानें थीं—अली महमूद शम्सी, अब्दुल वदूद शम्सी, नोएम शम्सी, अहमद दाऊद शम्सी, हसन इमाम शम्सी और शम्सा खातून। अल्लाह का करम था कि सभी ने उनके सपनों को हकीकत में बदलने में योगदान दिया।

लेकिन जो सपना अब्दुल अज़ीज़ साहब ने कभी देखा भी नहीं था, उसकी हकीकत से उन्हें अहमद दाऊद शम्सी ने रूबरू कराया। अहमद दाऊद शम्सी 1921 में आईसीएस (भारतीय सिविल सेवा) अफसर बनकर लंदन से लौटे। उस समय यह सम्मान बहुत कम भारतीयों को मिला करता था। लेकिन उनकी इस कामयाबी के पीछे परिवार का न कोई आर्थिक और न ही नैतिक सहयोग था।

यह बात भले ही अजीब लगती हो, लेकिन यही सच है। बचपन की एक शरारत ने उन्हें माता-पिता से दूर कर दिया। सिगरेट पीने के अपराध में उन्हें न केवल घर बल्कि शहर से भी निकाल दिया गया। इस सजा ने उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर कर दिया। अंततः कठिनाइयों से लड़ते-लड़ते उन्होंने दुनिया के सामने खुद को एक सफल इंसान के रूप में पेश किया। अहमद दाऊद शम्सी वायसराय के निजी सचिव के पद पर नियुक्त हुए। उन्हें लॉर्ड ववेल और लॉर्ड लिनलिथगो के संरक्षण में देश और समाज की सेवा करने का अवसर प्राप्त हुआ।

नौकरी के दौरान उनकी मुलाकात कई प्रसिद्ध हस्तियों से हुई, जिनमें लियाकत अली खान, जवाहरलाल नेहरू, राधाकृष्णन, मोहम्मद अली जिन्ना, और महात्मा गांधी प्रमुख थे। सुभाष चंद्र बोस के साथ उनके घनिष्ठ संबंध थे। सुभाष चंद्र बोस ने उनके साथ आईसीएस किया था, “सुभाष चंद्र बोस के साथ आपका रिश्ता हम प्याला और हम निवाला का था। सुभाष चंद्र बोस ने आपके साथ ICS किया। लेकिन कुदरत का फैसला सुभाष जी के लिए बिलकुल अलग हुआ।”

अहमद साहब की जिंदगी बहुत व्यस्त और घटनापूर्ण रही। नौकरी की जिम्मेदारियां, भारत की आजादी की उथल-पुथल, दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत, जिन्ना का पाकिस्तान का निर्णय—इन सभी ने उन्हें चैन से बैठने नहीं दिया। हालांकि काको में उनकी मौजूदगी कम रही, फिर भी उनकी दरियादिली के किस्से आम लोगों में मशहूर थे।

निस्संदेह दाऊद शम्सी साहब ने जीविका के लिए ब्रिटिश सरकार की नौकरी स्वीकार की, लेकिन उनका दिल हमेशा मातृभूमि के लिए धड़कता रहा। कार्यालय में वे सूट-टाई पहनते, लेकिन खाली समय में भारतीय परिधान को प्राथमिकता देते। महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांतों से वे बहुत प्रभावित थे। शायद यही कारण था कि आजादी के सभी सेनानियों से उनकी नजदीकी बनी रही। जीवन के अंतिम दिनों में गांधीजी के विचारों का उन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने नौकरी छोड़ने का मन बना लिया था।

अहमद दाऊद शम्सी के जीवन जैसा सुंदर   बगीचा में पहले से ही तीन खूबसूरत फूल बेटियों के रूप में मौजूद थे। लेकिन वे बेटों से वंचित थे। इस कमी के बावजूद वे ईश्वर की इच्छा के आगे नतमस्तक थे। शायद उनकी यह अदा ईश्वर को इतनी भा गई कि 21 मई 1936 का दिन उनके लिए खुशियों और प्रसन्नता से भरपूर बना दिया गया, और उस दिन बेटे के रूप में अलमा लतीफ शम्सी का जन्म हुआ। खास बात यह रही कि जन्मस्थान के रूप में कुदरत ने उनके  लिये राष्ट्रपति भवन का चयन किया।

घरेलु माहौल सामान्य भारतीय समाज के अनुसार अपेक्षाकृत था,और पिता ब्रिटिश सरकार का नमक का खा रहे थे। इस मानसिक जटिलता में अलमा साहब बड़े होने लगे जब मानसिक चेतना जाग्रत हुई तो उन्होंने क्रांतिकारी वातावरण को गरम पाया।

अक्सर क्रांतिकारी नेता अपनी अर्जियां लेकर भारत के वायसराय के पास आते रहते थे। हर किसी की वहां तक पहुंच नहीं थी, लेकिन अहमद दाऊद शम्सी के कार्यालय तक पहुंचना आसान था। हर मुद्दे पर बहस-मुबाहसा होता, फिर वायसराय को ज्ञापन प्रस्तुत किया जाता। क्रांतिकारी नेताओं की कई गुप्त बैठकें भी घर के भीतर होतीं। ऐसी गुप्त बैठकों में लतीफ साहब की भी भागीदारी होती थी।

आमतौर पर क्रांतिकारी उन्हें एक नादान बच्चा समझकर अनदेखा कर देते थे। उन्हें क्या पता था कि उनका मानसिक विकास समय से पहले हो चुका है। मजे के लिए ही सही, लेकिन वे सरकार विरोधी गतिविधियों में शामिल होने लगे और भारत के सबसे कम उम्र के क्रांतिकारी की सूची में अपना नाम दर्ज करवा लिया। 

आपकी किताब “अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और मेरी दास्तान-ए-हयात” में कई ऐसी घटनाओं का जिक्र मिलता है। अल्मा साहिबा की खुशकिस्मती यह थी कि आप एक आम पिता की संतान नहीं थे, बल्कि एक बड़े पिता की संतान थे। जीवन की हर सुख-सुविधा उन्हें उपलब्ध रही। दुख और परेशानियों का साया उन पर कभी नहीं पड़ा। जन्म के कुछ सालों बाद परंपरा के अनुसार शुरुआती शिक्षा का इंतजाम घर पर ही किया गया। फिर लेडी इरविन स्कूल में आपका प्रवेश कराया गया। इसी बीच डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन की सलाह पर आपको जामिया मिलिया इस्लामिया में भेजा गया। डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन की देखरेख में आपकी शिक्षा-दीक्षा शुरू हुई।

ज़ाकिर साहब से आपके पिता के पुराने संबंध थे, और फिर लतीफ साहब ने इन संबंधों को और मजबूत कर दिया। ज़ाकिर साहब के परिवार से यह रिश्ता जीवनभर कायम रहा। 1944 में आपकी शैक्षिक यात्रा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की ओर हुई, जहां से शिक्षा के साथ-साथ आपका राजनीतिक सफर शुरू हुआ। जीवन के विभिन्न उतार-चढ़ावों से यह व्यक्तित्व गुज़रता रहा। अंततः यह व्यक्ति यहीं की जीवनशैली में रच-बस गया। यहां की सुंदर सुबहें और मनमोहक शामों ने कहीं और जाने की अनुमति ही नहीं दी। लतीफ शम्सी ने अलीगढ़ से राजनीति विज्ञान में एमए किया और एक प्रभावशाली और सम्मानित व्यक्तित्व के रूप में उभरे। देश और विदेश की नामी हस्तियों ने उस सोच और समझ को और भी सुदृढ़ किया, जिसे आपने अपने पिता के साथियों की संगति में प्राप्त किया था।

अलीगढ़ की शैक्षणिक, राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों में आपने व्यक्तिगत रूप से भाग लिया। आप अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष चुने गए, और इस पद पर आपकी कार्यशैली को काफी सराहा गया। बीए में आप एजुकेशन सोसाइटी के अध्यक्ष बने और कई वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लिया। आपने खुद को एक बेहतरीन वक्ता के रूप में प्रस्तुत किया, और बाद में यही गुण राजनीति के क्षेत्र में प्रेरणा का स्रोत बना।

1954 में आप अंजुमन तरक्की-उर्दू की अलीगढ़ शाखा के सचिव और 1955 में ऑल इंडिया भारतीय सोशलिस्ट पार्टी की अलीगढ़ शाखा के जिला महासचिव नियुक्त हुए। अब्दुल नासिर, ईरान के रजा शाह पहलवी, ज़हीर शाह जैसे प्रमुख व्यक्तियों के स्वागत में आप ने अहम भूमिका निभाई।

अलीगढ़ के मुशायरों में भाग लेना, अलीगढ़ की प्रदर्शनियों में हिस्सा लेना, जोश, जज़्बी और शहरयार जैसे महान कवियों से मिलना, अलीगढ़ के अल्पसंख्यक चरित्र पर सवाल उठाना और उसकी बहाली में आपकी भूमिका, इन सभी गतिविधियों में आपकी सक्रियता रही। यह कहानी लगभग 22 वर्षों की अवधि को समेटे हुए है, और हर पन्ने को पलटना आसान नहीं।

आप ने इस विषय पर “अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और मेरी दास्तान-ए-हयात” शीर्षक से एक किताब भी प्रकाशित की है, जिसमें कई अनछुए पहलुओं को उजागर किया गया है।

लतीफ़ शम्सी साहब को एक प्रतिष्ठित इंसान बनाने में उनकी माता सलमा शम्सी का महत्वपूर्ण योगदान था। अपनी युवावस्था में विधवा होने के बाद, उनकी माता ने खुद को घर की चहार दीवारों में सीमित नहीं किया। 1946 में दाऊद शम्सी साहब के निधन के बाद, उन्होंने अपना पूरा जीवन अपने बच्चों के लिए समर्पित कर दिया। आसमा शम्सी और फ़ातिमा शम्सी दोनों बेटियों की शादी की जिम्मेदारी निभाना उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। भगवान की कृपा से दोनों बेटियाँ ससुराल चली गईं, लेकिन एक बेटी का निधन कम उम्र में हो गया। इन जिम्मेदारियों को पूरा करने के बाद, उन्होंने अपना सारा ध्यान लतीफ़ साहब पर केंद्रित कर दिया।

उनकी छोटी-छोटी जरूरतों का ख्याल रखना और इस तरह रखना जैसे यह किसी धार्मिक कर्तव्य का हिस्सा हो। इस लाड़-प्यार ने जहाँ पिता की कमी का एहसास खत्म कर दिया, वहीं उनके भीतर श्रेष्ठता की भावना को इतना बढ़ा दिया कि बाद की जिंदगी में संतुलन बनाए रखना मुश्किल हो गया। नतीजतन, इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा। अगर मैं सिर्फ उनकी माँ के गुणों की चर्चा करूँ, तो लेख कई पृष्ठों तक फैल सकता है। बस इतना समझिए कि लतीफ़ साहब की जिंदगी में उनकी माँ की छवि हर कदम पर गहराई से मौजूद थी। अलीगढ़ से उनका निष्कासन और फिर से प्रवेश करना, प्रसिद्ध व्यक्तियों से मुलाकात, जिंदगी की जटिलताओं से परिचय, धार्मिक और नैतिक शिक्षा, खर्चों की व्यवस्था, शिक्षा से लेकर वैवाहिक जीवन तक उनकी हर कदम पर मार्गदर्शिका बनी रहीं।

मैंने अभी तक आपके सामने लतीफ़ शम्सी के बचपन से लेकर अलीगढ़ तक की घटनाओं को प्रस्तुत किया है। साहित्य और राजनीति के संदर्भ में अब भी कई अनकहे पहलुओं पर चर्चा बाकी है।

“उठाए कुछ वरक़ लाला ने, कुछ नर्गिस ने, कुछ गुल ने 

चमन में हर तरफ बिखरी हुई है दास्ता मेरी।”

इन दास्तानों को कहाँ तक एकत्र करूँ? अनेक पृष्ठ इधर-उधर बिखरे हुए हैं। घटनाएँ इतनी लंबी हैं कि कलमबद्ध करना मुश्किल जान पड़ता है। इस उलझी हुई गुत्थी के हर मोड़ में अतीत और वर्तमान की गहरी कहानियाँ छिपी हुई हैं। कहीं मधुर स्मृतियाँ हैं, कहीं समय की कड़वाहटें, कहीं राजनीति के मोड़ पर फिसलने का डर है, कहीं दोस्तों की महफिल की हंसी-खुशी। कहीं कवि-सम्मेलनों की रंगीन शामें हैं, तो कहीं जेल की कठिनाइयों से भरी जिंदगी। बहरहाल, इन उलझनों को सुलझाने की कोशिश करते हुए, यकीनन कुछ धागे सुलझ ही जाएंगे।

अलीगढ़ का यह शिक्षण संस्थान छात्रों को केवल शिक्षा के गहनों से नहीं सजाता, बल्कि यह एक ऐसी प्रयोगशाला है जो उन्हें अपने व्यक्तित्व और गुणों पर आलोचनात्मक दृष्टिकोण डालने के लिए मजबूर करता है। यह उन्हें व्यावहारिक रूप से जीवन के उतार-चढ़ाव से परिचित कराता है। इस प्रक्रिया से गुजरने के बाद जो व्यक्तित्व उभरता है, वह समाज के लिए अनमोल साबित होता है।

अलीगढ़ से शिक्षा प्राप्त करने के बाद लतीफ़ साहब ने जीवन के लिए कोई ठोस लक्ष्य तय नहीं किया था। उन्हें विरासत में जो संपत्ति मिली थी, उसने उन्हें जीविका की चिंता में पड़ने ही नहीं दिया। शाही मिजाज और रईसाना ठाठ-बाट के कारण नौकरी का बोझ उठाना उनके लिए मुश्किल था। अलीगढ़ की डिग्री उनके ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाने के अलावा जीविका के लिए उपयोगी नहीं हो सकी।

एक बार बुजुर्गों की सलाह पर उन्होंने अलमारी का कारखाना भी खोला, लेकिन वह स्वास्थ्य की खराबी और अनुभवहीनता की भेंट चढ़ गया। खाली समय मनोरंजन, यात्रा, शिकारगाह और दोस्तों की महफिलों में बितता रहा। जीवन बार-बार उन्हें विपरीत दिशा में धकेलता रहा। यह ऐशोआराम की जिंदगी ज्यादा दिन नहीं टिक सकी और एक बार फिर राजनीति की शतरंजी बिसात बिछाई गई।

इस बार का मुकाबला एएमयू के छात्रों से नहीं, बल्कि राजनीति के बेहतरीन खिलाड़ियों से हुआ। सबसे पहले उनके चाचा फ़ख़रुद्दीन मोहम्मद शम्सी साहब उनके सामने प्रतिद्वंदी के रूप में आए। फ़ख़रुद्दीन साहब राजनीतिक क्षेत्र में बहुत सक्रिय नहीं थे, लेकिन कांग्रेस से वैचारिक समानता के कारण बहुत करीब थे। उनकी हैसियत जहानाबाद में ‘किंगमेकर’ जैसी थी। वह काको की सम्मानित हस्तियों में गिने जाते थे। उनकी पहल पर महात्मा गांधी और ख़ान अब्दुल ग़फ्फ़ार ख़ान दो बार काको आ चुके थे। इस संबंध में शम्सी बिल्डिंग 1935 से लेकर अब तक कई नेताओं की आरामगाह और शरणस्थली बनी रही।

1962 के लोकसभा चुनाव में श्री श्याम बर्थवार कांग्रेस के उम्मीदवार बने, जिन्हें फ़ख़रुद्दीन साहब का पूरा समर्थन प्राप्त था। लेकिन लतीफ़ साहब को कांग्रेस से हमेशा विरोध रहा। वह कांग्रेस को मुसलमानों का दुश्मन और देश के विभाजन का जिम्मेदार मानते थे। उन्होंने कांग्रेस से इस दुश्मनी का बदला श्याम बर्थवार का विरोध करके निकाला। उन्होंने हर संभव मदद से कांग्रेस के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी का समर्थन किया। लेकिन कांग्रेस हाईकमान की नेतृत्व क्षमता और फ़ख़रुद्दीन शमसी साहब की मेहनत ने बाज़ी पलट दी और कांग्रेस ने जीत हासिल की। इस संघर्ष को राजनीतिक खिलाड़ियों ने गंभीरता से लिया। इसके बाद लतीफ़ साहब की मुलाकात राम मनोहर लोहिया से कराई गई। उन्हें भारतीय सोशलिस्ट पार्टी का सदस्य बनाया गया और जिला स्तर का सचिव नियुक्त किया गया। धीरे-धीरे उन्हें कई पदों से होते हुए अखिल भारतीय महासचिव के पद पर चुना गया।

लतीफ़ साहब ने वर्षों तक इस पद पर काम किया। कई आंदोलन, चुनाव और राजनीतिक ज़िम्मेदारियां संभालीं। इसी दौरान उनकी मुलाकात राम मनोहर लोहिया और अन्य प्रतिष्ठित हस्तियों से हुई। इनमें से कुछ के साथ पत्र-व्यवहार भी होता रहा, और ये पत्र आज भी सुरक्षित हैं। इन पत्रों का प्रकाशन अत्यंत आवश्यक है क्योंकि इनमें राम मनोहर लोहिया से लेकर इंद्र कुमार गुजराल तक की राजनीतिक गतिविधियों की झलक मिलती है। यह राष्ट्रीय धरोहर हैं।

पता नहीं उनके पुत्र यूसुफ इकबाल शम्सी इस काम को कितनी गंभीरता से लेते हैं। अक्सर विभिन्न विषयों से लतीफ़ साहब के राजनीतिक बयानों ने भी अखबारों की सुर्खियां बनाई हैं। उन बयानों के अखबारी कतरों को वे सुरक्षित भी रखते थे। किसी तरह उनकी प्रकाशिति हो जाए तो उनके मानसिक और विचारात्मक स्तर का अनुमान लगाया जा सकता है। निःसंदेह, आज़ादी के बाद कुछ ऐसे नेता भी थे जिन्होंने देश की महानता और सम्मान को बढ़ाने में एक बड़ा योगदान दिया था, लेकिन वे आज गुमनामी के अंधेरे में खो गए हैं। भगवान का आशीर्वाद है कि उन्होंने पूरी तरह से इन अंधेरों की कालिमा को स्वीकार नहीं किया। आखिरी उम्र में भी उन्होंने खुद को राजनीति के मैदान से पूरी तरह दूर नहीं रखा, हालांकि वे सक्रिय राजनीति से दूर थे, फिर भी समय-समय पर उनके इंटरव्यू, बयान मीडिया और अखबारों में आते रहे। उन्हें सक्रिय रखने में उनके प्रशंसकों का बड़ा योगदान है, खासकर डॉ. रेहान गनी, सैयद तबिश इमाम, डॉ. क़ासिम ख़ुर्शीद, गुलाम असदक, सैयद आसिफ इमाम, मोहन श्रीवास्तव आदि।

1974 का जेपी आंदोलन भारतीय राजनीति का टर्निंग पॉइंट माना जाता है, जिसने इंदिरा गांधी की सत्ता को हिला दिया। यह आंदोलन स्वतंत्रता के बाद भ्रष्टाचार और बेरोजगारी के खिलाफ सबसे बड़ा जनांदोलन था। 1975 में इस आंदोलन के बाद इमरजेंसी लगाई गई, जो जनवरी 1977 तक जारी रही। इन आपातकालीन परिस्थितियों में कई सोशलिस्ट नेताओं को गिरफ्तार किया गया। लतीफ़ साहब को भी मीसा एक्ट के तहत जहानाबाद की जेल में कई महीने बिताने पड़े। इस आंदोलन में उनकी मुलाकात लालू प्रसाद, सुशील कुमार मोदी, अब्दुल गफ़ूर, जॉर्ज फर्नांडिस, कर्पूरी ठाकुर और श्याम सुंदर दास जैसे नेताओं से हुई।

राजनीतिक गलियारों में यह बात मशहूर है कि जयप्रकाश नारायण ने उन्हें गया लोकसभा सीट से टिकट की पेशकश की थी, लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया। लतीफ़ साहब मनोवैज्ञानिक रूप से आत्म-श्रेष्ठता के भाव से प्रभावित थे। उन्होंने कभी सरकारी पद, पेंशन या किसी तरह की सुविधाओं को स्वीकार नहीं किया और न ही अपने परिवार के लिए किसी तरह की सिफारिश की। इसे आप उनका अहंकार कह सकते हैं या स्वाभिमान।

लतीफ़ साहब अपनी पहचान में एक संस्था थे। उनके अंदर इतिहास का एक विशाल अध्याय छिपा था। उनकी पूरी जीवनी को एक किताब में समेटना आवश्यक है। साहित्यिक दृष्टि से भी उनकी शख्सियत बेहद महत्वपूर्ण थी। उन्हें ‘अंजुम काकवी’ के नाम से एक अलग पहचान मिली थी। उनके परिवार में कई प्रतिष्ठित साहित्यकार हुए, अख्तर उरैणवी, प्रोफेसर एस एम हसनैन, प्रोफेसर एस एम मोहसिन, काजी अब्दुल वदूद, अब्दुल बारी साकी, मुहम्मद मुस्लिम अज़ीमाबादी, शफी मशहदी, डॉ. इफ्त शमसी, आदि सभी महान साहित्यकारों से आपके पारिवारिक संबंध या रिश्ते थे। एक कवि के रूप में उन्हें अलीगढ़ के मुशायरों से लेकर लाल किला के मुशायरों तक पढ़ने का मौका मिला। बिहार की साहित्यिक गतिविधियों में भी वे बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। बज़्म इत्तेहाद नालंदा, पैगाम अदब आरा, बज़्म राही गया, उर्दू अकादमी अजीमाबाद की साहित्यिक बैठकों में वे शामिल रहते थे। फरोग उर्दू जहानाबाद के मुशायरे में उनकी भागीदारी जरूरी मानी जाती थी। एक सृजनक के रूप में उनकी दो किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। एक तीसरी किताब “काको मेरा गांव और मेरे लोग” अभी कंपोजिंग के चरण से गुजर रही थी, इसके अलावा एक शेरो शायरी का संग्रह “अफकार अंजुम” प्रकाशित करने का इरादा रखते थे। शमसी साहब ने परिवार के बारे में बताया कि उन्होंने अपने पीछे बेटे यूसुफ इकबाल शमसी, तीन बेटियाँ, तीन दामाद, तीन पोते और तीन पोतियाँ छोड़कर एक पूरा महकता और चहकता गुलशन छोड़ा है। भगवान करे, उनकी ये अप्रकाशित रचनाएँ कभी न कभी उनके परिवार के माध्यम से हमारे बीच आएं। 

शमसी साहब जितने उर्दू एवं  हिन्दी की 

भलाई के लिए प्रयासरत थे, ऐसा जज़्बा आमतौर पर कम लोगों में नजर आता है। काको में अंजुमन तरक्की उर्दू, बज़्म कहकशां और उर्दू हिंदी साहित्य संगम की स्थापना में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। उर्दू हिंदी साहित्य संगम के तहत अयूब रज़ा नश्तर काकवी की संगत में कई साहित्यिक मंडलियाँ और मुशायरों की महफिलें सजाई गई। नश्तर काकवी में शेर और नज़्म दोनों ही क्षमता बहुत उत्कृष्ट थी। आज भी मुहर्रम के अवसर पर नश्तर काकवी के मर्सिए काको में पढ़े और सुने जाते हैं। लतीफ शमसी की ज्ञानप्रियता का क्या कहना, उन्होंने कन्या  उच्च विद्यालय काको में सालों तक मुफ्त शिक्षा सेवा दी। कई सालों तक काइनात इंटरनेशनल स्कूल उनके निवास स्थान शमसी बिल्डिंग में मुफ्त (बिना किराए) चलता रहा। लतीफ साहब को सक्रिय और गतिशील लोग अधिक पसंद थे, जिसके परिणामस्वरूप शबी शमसी और शकील अहमद काकवी उनके दिल के बहुत करीब थे। शबी शमसी की सामाजिक और धार्मिक सेवाओं की वे अक्सर सराहना किया करते थे। शबी शमसी अभी मिर्जा गालिब कॉलेज गया में सचिव के पद पर हैं और अपनी किताब “काको की कहानी अल्मा की जुबानी” में काको की जिन मशहूर हस्तियों पर उन्होंने चर्चा की है, उनमें शबी शमसी की शख्सियत और गुणों का एक बड़ा हिस्सा शामिल है। शकील अहमद काकवी के बारे में उनका यह सुंदर कथन उल्लेख करने योग्य है: “शकील ने केवल अपनी क्षमता से अपनी आर्थिक समस्याओं को दूर नहीं किया, बल्कि अपने विज्ञान से काको का नाम दुनिया में मशहूर कर दिया”। शकील काकवी काइनात इंटरनेशनल स्कूल, काको के संस्थापक और वर्तमान संरक्षक हैं।

8 जनवरी 2025 को लतीफ़ साहब ने अपने पैतृक गांव काको में अंतिम सांस ली और उन्हें उनके पैतृक कब्रिस्तान “शम्स रौज़ा” में दफनाया गया। उनका निधन केवल एक आम इंसान की मौत नहीं थी। उनके निधन से साहित्य और राजनीति, दोनों क्षेत्रों को भारी नुकसान हुआ। इस मौत के साथ एक सदी का इतिहास दफन हो गया।

मौत उसकी है, करे जिसका ज़माना अफ़सोस, 

यूँ तो दुनिया में सभी आए हैं मरने के लिए।

°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°

अलमा लतीफ़ शमसी 
Leave A Reply

Your email address will not be published.