बिहार के पत्रकार भी अब चाटुकारिता और दलाली के लाइन में?
दिल्ली में हुए एक खास डिनर में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने बिहार चुनाव के मद्देनज़र प्रमुख यूट्यूब पत्रकारों और डिजिटल मीडिया चेहरों को आमंत्रित किया।
भारत में लोकतंत्र की रीढ़ यदि संसद है, तो उसकी आत्मा पत्रकारिता है। लेकिन अफसोस, आज वही पत्रकारिता सत्ता के दरबार में सिर झुकाए बैठी है।
📌 पत्रकारिता या प्रबंधन? बिहार चुनाव और मीडिया की गिरती साख
लेखक: सैय्यद आसिफ इमाम काकवी
पत्रकार अगर सत्ता की गोदी में बैठ जाए, तो जनता का विश्वास डूब जाता है। भारत में लोकतंत्र की रीढ़ यदि संसद है, तो उसकी आत्मा पत्रकारिता है। लेकिन अफसोस, आज वही पत्रकारिता सत्ता के दरबार में सिर झुकाए बैठी है। टीवी पर हावी “गोदी मीडिया” के बाद जनता को उम्मीद थी कि डिजिटल मीडिया खासकर यूट्यूब आधारित स्वतंत्र प्लेटफॉर्म आम लोगों की आवाज़ बनेगा, लेकिन अब वे भी उसी सत्ता की गोद में बैठकर ‘संपर्क’ और ‘डिनर’ की चटपटी तस्वीरों में गुम हो चुके हैं। दिल्ली में हुए एक खास डिनर में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने बिहार चुनाव के मद्देनज़र प्रमुख यूट्यूब पत्रकारों और डिजिटल मीडिया चेहरों को आमंत्रित किया। वहाँ मौजूद थे सौरव द्विवेदी (लल्लनटॉप), शुभंकर मिश्रा, भाजपा के मीडिया प्रभारी संजय मयूख, और कई सांसद। Live Cities जैसे मीडिया संस्थान इस डिनर की तस्वीरें साझा करते हुए बताने लगे कि ‘गृह मंत्री जी से बिहार पर चर्चा हुई’। पर सवाल ये है कि क्या चर्चा बेरोजगारी, महंगाई और बदहाल शिक्षा-स्वास्थ्य पर हुई, या फिर केवल चुनावी नैरेटिव गढ़ने और सत्ता का प्रचार करने की योजना बनी? क्या ये वही पत्रकार हैं जो खुद को जनता की आवाज़ बताते हैं? क्या ये वही प्लेटफॉर्म हैं जो सत्ता से सवाल पूछने का दावा करते थे? आज यदि वे डिनर की टेबल पर बैठे हैं, सेल्फी ले रहे हैं, और खुद को “नंबर वन पत्रकार” कह रहे हैं तो ये मीडिया नहीं, प्रबंधन का हिस्सा है। बिहार के युवा आज भी पूछ रहे हैं नौकरी कहाँ है? शिक्षक बहाली क्यों अटकी है? कानून व्यवस्था इतनी लचर क्यों है? पलायन, भूख, अपराध का जवाब कौन देगा? लेकिन जब सवाल पूछने वाले खुद मंच के हिस्सेदार बन जाएं? चुनाव पास है, और अब डिजिटल मीडिया को नई ज़िम्मेदारी दी गई है नैरेटिव सेट करने की। बिहार में बीजेपी की सरकार कैसे बने, किस मुद्दे को उछालना है और किसे दबाना है अब यही काम डिजिटल पत्रकारिता के ‘किंग्स’ को दे दिया गया है। जनता के सवालों पर चुप्पी, सत्ता के भोज में मुस्कराहट यही आज की पत्रकारिता का स्याह सच बनता जा रहा है। अब वक्त आ गया है कि जनता खुद तय करे कि कौन पत्रकार है और कौन सत्ता का प्रचारक। आज जब हर कोई ‘ब्रांड पत्रकार’ बन चुका है, तब ज़रूरत है ज़मीन से जुड़ी पत्रकारिता की, जो सरकार से जवाब मांगे आम आदमी के हक़ की बात करे और मुद्दों की गहराई में जाकर सच्चाई सामने लाए. बिहार का चुनाव केवल एक सत्ता परिवर्तन नहीं, लोकतंत्र की आत्मा की परीक्षा है। पत्रकार अगर सत्ता के साथ खड़ा हो जाए, तो जनता को अपनी आवाज़ खुद बननी पड़ेगी। ईमानदार पत्रकारिता अब नफरत और प्रचार के शोर में खो गई है लेकिन हमें हार नहीं माननी।

