अज़ीम इतनी है तारीख़-ए काको बयाँ कैसे हो लफ्ज़ो में दास्ताँ इसकी

काको शरीफ़ एक धार्मिक और इत्तिहासिक जगह है काको शरीफ़ की कहानी भी कुछ ऐसी ही है।

काको शरीफ़ एक धार्मिक और इत्तीतिहासिक जगह है – यहां रियासत, विरासत और सियासत के बावजूद यहाँ गंगा जमुनी तहज़ीब की ज़िन्दा तस्वीरें आपको हर वक़त देखने को मिल जाएंगी।

अज़ीम इतनी है तारीख़-ए काको

बयाँ कैसे हो लफ्ज़ो में दास्ताँ इसकी

सैय्यद आसिफ इमाम काकवी

निगाहें नक्‍शे पर जाकर अटकती हैं। सरहद की खींच दी गई रेखाओं में कैद कोई शहर धरती का एक टुकड़ा भर दिखाई देता है। क्या उस शहर का वजूद सिर्फ इतना और यही है? बेशक पहचान का यह पैमाना बहुत छोटा है। समय के फैले हुए विस्तार में एक शहर कई तरह से सांसें लेता है और उसकी धड़कनें मुसलसल एक बड़ी विरासत का फलसफा रच देती हैं। इस विरसे को अपने किरदार में थामती है वहां की अवाम। तहजीब अपना घर बसाती है। परंपराएं आने वाली नस्लों में मुस्कुराती हैं। नए चेहरे पहनकर वे पांव पसारती हैं। तमाम सलवटों के बावजूद भूली हुई सी यादों को पुकारती कोई आवाज वादियों में तैरने लगती है। शहर अपनी तारीख और तासीर में पहचान की पुरानी रंगोमहक लिए स्मृतियों में जाग उठता है।

काको शरीफ़ एक धार्मिक और इत्तिहासिक जगह है काको शरीफ़ की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। हिंदुस्तान के दिल में बसे सूबे बिहार के तकरीबन बीच में गया और पटना से घिरा वो शहर जिसके हुस्न पर यहां का बाशिंदा ही नहीं, आने वाला हर सैलानी भी हैरान रहा है। इसकी बसाहट और इसके आबाद इतिहास से जुड़े बेशुमार किस्से हैं जो आज भी पटियों और गली-चौराहों की गुमटियों पर गुलजार हैं लेकिन बस, किस्सों में अब जिंदा है काको। आहिस्ता-आहिस्ता वो पीढ़ियां इस दुनिया-ए-फानी से कूच कर गईं जिनके किरदार में यह शहर अपनी निखालिस पहचान के साथ जिंदा था। ये पहचान क्या थी? अदब और तहजीब के रौशन नुमाइंदों की महफि़लों के क्या जलवे थे ? सियासत और समाज की बागडोर थामने वाले -नवाबों और उस्तादों की वो कैसी फितरतें थीं ? वो दौर तो गुजर गया लेकिन नक्‍शे कदम छूट गए। शहर काको की ऐसी ही रूहानी सदाओं को सुनते-जीते और साझा करते हुए कुछ बरस पहले 14 वर्ष पहले इसी सरजमीं के बाशिंदे सैय्यद आसिफ इमाम काकवी ने जब अपने Facebook सोशल पोर्टल BIHAR 24×7 Kako کاکو काको पेज सफहों पर उतारा तो ‘सिर्फ नक्‍शे कदम रह गए’. काको शरीफ़ एक धार्मिक और इत्तीतिहासिक जगह है यहाँ गंगा जमुनी तहज़ीब की ज़िन्दा तस्वीरें आपको हर वक़त देखने को मिल जाएंगी। कहा जाता है कि पुराने वक्त़ में काको शरीफ़ एक ऐसा एलाक़ा था, जहां सूफ़ी संतों ने अपने मज़हबी,समाजी और सांस्कृतिक कार्यो द्वारा प्रेम और सहनशीलता का संदेश फैलाया था उस ज़माने मे काको दीन की रौशनी से महरूम था।शहर-ए-काको में कसरत से बुज़ुर्गान-ए-बा-कमाल गुज़रे हैं मसलन हज़रत मख़दूम शैख़ सुलैमान लंगर ज़मीन मनेरी सुम्मा काकवी, हज़रत शाह इ’ज़्ज़ काकवी सुम्मा देहलवी, हज़रत शाह क़ियामुद्दीन काकवी, हज़रत शाह रुकनुद्दीन काकवी, हज़रत सय्यद इब्राहीम ज़िंदा-दिल काकवी, हज़रत सुलैमान सय्याह काकवी, हज़रत शाह मुबारक काकवी और हज़रत शाह मुहम्मद बिन दरवेश काकवी क़ुद्दिसल्लाहु अस्रारहुम वग़ैरा मगर उनके नाम मशहूर और ज़बान-ज़द-ए – ख़ास-ओ-आ’म नहीं हुए ,क्यूँकि उस बस्ती को कई मर्तबा आगजनी का सामना करना पड़ा, जिसकी वजह से प्रचाचीन धरोहर और दस्तावेज़ जल कर-ख़ाक हुआ, तेरहवीं सदी ”हिज्री” के अंत में हमद काकवी के अनुसार 15 रबीउ’स्सानी 1291 हिज्री मुताबिक़ 2 मई 1874 ई’स्वी फ़स्ली 1 जेठ ब-रोज़-ए-शंबा,और दूसरी मर्तबा 14 ज़ीकाअ’दा 1314 हिज्री मुताबिक़ 17 अप्रैल 1897 ई’स्वी फ़स्ली 30 चैत ब-रोज़-ए-शंबा को ऐसी आग लगी कि सारी बस्ती जल गई जिस से बस्ती के बाशिंदों का सारा सरमाया ख़ाकिस्तर हो गया और ये “कहावत मशहूर है कि – “सारा काको जल गया और बीबी कमाल सोई रहीं”।         रियासत, विरासत और सियासत के लिये प्रसिद्ध प्राप्त कमालाबाद एवं काको अपनी प्रचीन और सभ्यता और संस्कार के लिहाज़ से मगध प्रमंडल में हमेशा श्रेष्ठ रह है। यहाँ प्रसिद्ध सूफी हज़रत मख़्दूमा बी-बी हद्या अ’ल-मारूफ़ ब-कमाल क़ुद्दिसा सिर्रहा का आस्ताना-ए-मुतबर्रका मुल्क भर में क़स्बा काको की अपनी एक अलग पहचान है। कसरत से बंदगान-ए-ख़ुदा इस दर पे आ कर मन की मुराद पाकर ब-खु़शी वापस होते हैं। ये जगह हज़रत बी-बी कमाल की दामन-ए-मोहब्बत में आबाद-ओ-शाद है। इस क़स्बा काको के अव्वल बुज़ुर्ग हज़रत शैख़ सुलैमान लंगर ज़मीन इब्न-ए- मख़्दूम शैख़ अ’ब्दुल अ’ज़ीज़ मनेरी इब्न-ए-फ़ातिह-ए-बिहार हज़रत इमाम मोहम्मद ताज फ़क़ीह हैं। ये हज़रत बी-बी कमाल के शौहर और हज़रत मख़्दूम-ए-जहाँ के अ’म्मी अल-मुकर्रम हैं। हज़रत सुलैमान लंगर ज़मीन की कोशिशों से कई लोग मुशर्रफ़ ब-इस्लाम हुए, अपनी अह्लिया के हमराह आप क़स्बा-ए-काको में आ बसे कहते हैं कि आपकी बा-कमाल अह्लिया ने आ’लम-ए-ग़ैज़ में ब-तसर्रुफ़-ए-बातिनी उस बस्ती को उलट दिया, कहा जाता है कि उस तसर्रुफ़ में इतनी शिद्दत थी कि उस इ’लाक़ा की तमाम ज़मीन ही तह-ओ-बाला हो जाती लेकिन हज़रत सुलैमान की मौजूदगी के सबब ऐसा न हुआ यही वजह है कि आपका लक़ब लंगर ज़मीन पड़ा और इस बस्ती का नाम काको पड़ गया जो कोका की उलटी हुई शक्ल है यहाँ बेशतर औलिया-ओ-अस्फ़िया की मुक़द्दस जमाअ’त क़दीम अ’ह्द से मौजूद है। क़दीम अ’ह्द में सिलसिला-ए-क़ादरिय, फ़िर्दौसिया के अ’लावा सिलसिला-ए-चिश्तिया और अबुल-उ’लाइया का ज़ोर ख़ूब रहा। विलायत-ओ-हिदायत,करामत-ओ-मा’रिफ़त,लियाक़त-ओ-सलाबत और तहक़ीक़-ओ-तदक़ीक़ के हर शो’बा-ए-हयात से यहाँ का तअ’ल्लुक़ रहा है। इस की अ’ज़्मत-ओ-बुलंदी से मुतअ’ल्लिक़ तमाम मकतब-ए-फ़िक्र के दानिश्वरों का इत्तिफ़ाक़ है,बल्कि किसी ज़माने में ये जगह अ’ज़ीमाबाद(पटना) का मर्कज़-ओ-मेह्वर हुआ करता था। हज़रत मख़्दूमा बी-बी हद्या अ’ल-मारूफ़ ब-कमाल क़ुद्दिसा सिर्रहा का आस्ताना-ए-मुतबर्रका मुल्क भर में मशहूर है। हिन्द के राबिया बसरी से मारूफ वलिया हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल रहमतुल्लाह अलैह ने अपनी कोशिशों से दीन की रौशनी फैलाई । काकोशरीफ़ वह तेहहयात रही । इन सालो में आपने रिश्तों हिदायत की ऐसी मिसाल पेश की कि यह विरान इलाक़ा दीन ए हक़ का चमन बन गया और आप इस चमन में फूल की तरह खिलते चले गये। आप मारूफ वलिया बड़े ए फ़ैज़ और बूज़ुर्ग वलियागुजरी है। 500 सदी पुरानी इस दरगाह हैं यह एक ऐसी रूहानी जगह है जहाँ सभी को दिली सुकून मिलता है। आपकी वफ़ात के बाद आपका रूहानी फ़ैज़ तसर्रूफ़ ओ कारामात का सिलसिला आज भी जारी है। लोग आज भी अपनी बिमारियों से निजात हासिल करने को काकोशरीफ़ हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल रहमतुल्लाह अलैह की दरगाह पर आते है और फ़ैज़ हासिल करते है। हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल अलैहि रहमा के आस्ताने में मजहब और धर्म की दीवार कोई मायने नहीं रखती यहाँ लोंगो का सिर्फ एक ही मजहब है और वह है इंसानियत। ऐसी मान्यता है कि हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल अलैहि रहमा के आस्ताने पर मांगी गई हर वाजिफ मुराद जरूर पूरी हो जाती है। वर्ष 1174 में हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल अलैहि रहमा अपनी पुत्री हज़रत दौलती बीबी के साथ काको पहुंची थीं। यहां आने के बाद से ही वह काको की ही रह गई। ऐसा कहा जाता है कि आपका काफला काको के रास्ते से अक्सर गुज़रा करता था।आपके तौर तरीके को देखकर वहाँ के बाशिंदा आपसे अक़ीदत व मोहब्बत करने लगे। आपके तरीके को देखकर लोग इस्लाम मे दाखिल होने लगे। लेकिन उस वक़्त के बादशाह को जब यह बात मालूम हुई तो बादशाह को नापसंद आया इसलिए कि उसकी इज़्ज़त में कमी हो रही थी । आप अक्सर अपने काफले को जब उस रास्ते से गुजरती तो आपका उस इलाके में पड़ाव होता। दरगाह शरीफ से रिलेटेड एक बड़ा सा तालाब भी है आप उसी जगह अपना पड़ाव डालती और उसी पानी से अपनी पानी की ज़रूरियात पूरी करती। जब बादशाह को यह पता चला कि आप कोई मामूली औरत नही बल्कि एक वलिये कामला है। यानी एक बहुत बड़ी सूफिया है एक दिन बादशाह ने आपको आज़माने के लिए खाने पर अपने यहाँ दावत दी और दावत में एक पियाले मे बिल्ली का मीट और दूसरे पियाले में चूहे की मीट पेश क्या। खाने में जब चूहे और बिल्ली का मीट दस्तरखान पर आया तो आप को पता चल गया आपने बिल्ली के मीट को कहा कि बिल्ली ज़िंदा हो जाओ। बिल्ली के पियाले का पूरा मीट फिर से बिल्ली बनकर ज़िंदा हो गई और चूहे के पियाले को कहा कि चूहा ज़िंदा हो जाओ। चूहा के पियाले का पूरा मीट फिर से चूहा बन गया। बादशाह यह देखकर हैरान हो गया बीबी कमाल जलाल में आई उसी जगह एक बर्तन खाली पड़ा था अपने उसे उलट दिया। बर्तन के उलटने के साथ ही पूरे बादशाह की सल्तनत उल्टा गई और बाकी इलाक़ा आग में झुलस गया यानी काको उलट गया। जब बीबी कमाल अपने जलाल से बाहर आई तो देखा बादशाह की पूरी सल्तनत उलट गई ,और कुछ इलाक़ा आग में झुलस गया । इसलिए आज भी लोग अपनी जुबान में कहते है सारा काको जल गया और बीबी कमाल को पता भी नही। इससे पहले इसका नाम कोका था उलटने के बाद काको पड़ गया। यह इनका बहुत मशहूर करामत है इसके बाद आपने अपना हमेशा के लिए पड़ाव उसी जगह क़ायम कर दिया। मख़दुमा बीबी कमाल रहमतुल्लाह अलैह रात भर जाग कर इबादत किया करती थी। जो आपसे मिलने आता, उसे भी पाक ज़िन्दगी जीने और पावंदी से नमाज़ पढ़ने की ताकीद किया करती थी । बड़े ख़ुश मिज़ाजी से मिलती थी और आने वाले की ख़ूब इज्ज़त करती थी। हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल रहमतुल्लाह अलैह की बुलंद शख़सियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि आपके ख़ानदान मे 14 सूफ़ी मौजूद थे। हज़रत शहाबुद्दीन पीर जगजोत रहमतुल्लाह अलैह की संझली बेटी बीबी कमाल बड़ी सूफ़ी रहीं हैं। बड़ी बेटी बीबी रज़िया के बेटे और आपके नाती,हज़रत शेख़ शरफ़ उद्दीन अहमद मनेरी,मख़दूमे जहां हूए। बीबी कमाल बिहारशरीफ के हजरत मखदुम शर्फुद्दीन बिहारी याहिया की खाला थी। देश की पहली महिला सूफी संत होने का गौरव भी इन्हीं को प्राप्त है। फिरोजशाह तुगलक जैसे बादशाह ने भी बीबी कमाल को महान साध्वी के तौर पर अलंकृत किया था। इनके मजार पर शेरशाह , जहां आरा जैसे मुगल शासक भी चादरपोशी कर दुआएं मांगी थी। सेहत कुआं के नाम से चर्चित कुएं के पानी का उपयोग फिरोज शाह तुगलग ने कुष्ठ रोग से मुक्ति के लिए किया था। दरगाह से कुछ दूरी पर वकानगर में बीबी कमाल के शोहर हजरत सुलेमान लंगर जमीं का मकबरा है। आईने अकबरी में महान सूफी संत मकदुमा बीबी कमाल की चर्चा की गयी है जिन्होंने न सिर्फ जहानाबाद बल्कि पूरे विश्व में सूफियत की रौशनी जगमगायी है। हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल रहमतुल्लाह अलैह की बुलंद शख़सियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि आपके ख़ानदान मे 14 सूफ़ी मौजूद थे। हज़रत शहाबुद्दीन पीर जगजोत रहमतुल्लाह अलैह की संझली बेटी बीबी कमाल बड़ी सूफ़ी रहीं हैं। बड़ी बेटी बीबी रज़िया के बेटे और आपके नाती, हज़रत शेख़ शरफ़ उद्दीन अहमद मनेरी,मख़दूमे जहां हूए। बीबी कमाल बिहारशरीफ के हजरत मखदुम शर्फुद्दीन बिहारी याहिया की खाला थी। देश की पहली महिला सूफी संत होने का गौरव भी इन्हीं को प्राप्त है। हज़रत मख़दुमा बीबी कमाल रहमतुल्लाह अलैह की शख़सियत आम लोगों पर गहरा असर रखती थी। अधिकतर अल्लाह की याद में दुनिया से गाफिल रहती थी मगर जब काई ज़मीनी या आसमानी आफत आने वाली होती, तो आपको पहले से अंदाजा हो जाता था और आप उस समय तक बेचैनी के साथ अल्लाह से दुआ करती रहती थी, जब तक वह दूर न हो जाती। इसी प्रकार जब कोई मेहमान आपसे मुलाकात के लिए आने वाला होता, तो तो आपको पहले से खबर हो जाती। लगभग 1296 ई0 पूर्व में आपने इस दुनिया को छोड़कर सदा रहने वाली दुनिया का सफर इख़्तियार किया काको पनिहास के बिल्कुल किनारे तत्फ़ीन की गयी। सबसे ख़ास बात, गंगा- जमुनी तहजीब का ये मंज़र है, जिसकी, आज इस ज़माने में सख़्त ज़रूरत है। काको शरीफ ने हिन्दी और उर्दू दोनों ही ज़ुबानों में बहुत से अदीब बनाए। ये शहर सांझी तहज़ीब का नुमाइंदा है और सेक्युलर भी है। विरासत फ़क़त एक अदब की महफ़िल नहीं है बल्कि मोहब्बत और भाईचारे की एक ऐसी अज़ीम अलामत है जिसके आँगन में बड़ों का आदर, छोटों को दुलार, सलाहियतों की क़द्र, इंसानियत की हिफाज़त और समाजी मूल्य एक रिवायत बन जाते हैं। माज़ी की ये तस्वीर तारीख़ में हमारी अज़ीम तरीन मिसाल के तौर पर महफूज़ रहेगी। काको इस गांव ने इतनी बज़ी शख़्सयत को पैदा किया है जिसका आज भी कोई सानी नही है। इस गांव के बारे में ऐसे तो बहुत सारी बाते कही जाती है एैसी बहुत सारी कहावते इस गांव के लिए मशहूर है। जिन्होने अपनी इल्म ओ फ़ज़ल से सिर्फ़ बिहार ही नही पुरे मुल्क को मुनव्वर किया। काको पुरानी शान-ओ-शौकत और गंगा-जमुनी तहज़ीब का मर्कज़ भी है। इसके गली-कूचे इतिहास की बेरहम सच्चाइयों के गवाह रहे हैं। यहीं के शायरों ने अपने कलाम में ज़िक्र जिस जज़्बाती अन्दाज़ में किया है वह पढ़ने से ज़्यादा महसूस करने की शय है।काको वाले कहीं भी रहें काको आदाब कभी नहीं भुलाते। पुरखों से विरासत में मिले तहज़ीब के लबालब खजाने को कैसे दोगुना-चौगुना करना है, ये उन्हें खूब आता है. अपने अंदाज़-ए-बयां से वे दुश्मन को भी अपना दीवाना बना सकते हैं. जीवन में कितनी भी कड़वाहट क्यों न हो काको वालों की जुबान पर इसका असर कभी नहीं दिखेगा।

शेर का सुना चमन कुछ और ख़ाली हो गया

हाए कैसे कैसे शख्स से काको ख़ाली हो गया

कैसी कैसी रौनकें थी उस के इक इक शेर में

इक ज़माना गुम हुआ इक दौर ख़ाली हो गया

दिल धकड़ने का तसव्वुर ही ख़याली हो गया.

इक तेरे जाने से सारा शहर ख़ाली हो गया।

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