इस महिला आखिर ऐसा क्यूँ कर रही है ?
अब तो मैं ईश्वर की पोस्टमैन बन गई हूं। वह कुछ मुझे करने को देता है, तो अपनी सामर्थ्य से बिना किसी स्वार्थ के वह कर रही हूं - अरुणा गोयंका
अब तो मैं ईश्वर की पोस्टमैन बन गई हूं। वह कुछ मुझे करने को देता है, तो अपनी सामर्थ्य से बिना किसी स्वार्थ के वह कर रही हूं – अरुणा गोयंका
ईश्वर की पोस्टमैन बन गई हूं – अरुणा गोयनका
राजधानी दिल्ली की पॉश कॉलोनी वसंत कुंज से सटे बाबू जगजीवन रोड के राम मंदिर वाली वाली रोड पर आपको एक के बाद एक आलीशान फार्महाउस नजर आएंगे, जिनके विशाल गेट आपको अक्सर बंद नजर आते हैं, लेकिन इन्हीं फार्महाउसों के बीचों बीच बना भव्य फार्महाउस कंचनश्री इसका अपवाद है। इसके गेट पर कुछ सालों से हर सुबह ब्रेकफास्ट, दोपहर को भोजन और शाम की चाय का लंगर का संचालन इस फार्महाउस की मालकिन, जिन्हें यहां के ज्यादातर लोग ‘माताजी’ के नाम से जानते है, बिना किसी बाहरी या सरकारी मदद के घरेलू लंगर चलाती हैं। खास बात यह कि दोपहर के भोजन में दाल, सब्जी, चावल गरीबों को मुफ्त बांटे जाते हैं।
यहां चार साथियों के साथ भोजन कर रहे बिहार के मधुबनी से दिल्ली आए दिहाड़ी मजदूर रंजीत सिंह ने बताया कि वे करीब बीस दिन से साथियों के साथ यहां के फार्महाउस में चल रहे निर्माण कार्य के लिए रोज सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक मजदूरी करते हैं, लेकिन सुबह का नाश्ता और शाम की चाय यहीं से पाते हैं। रंजीत कहते हैं कि माताजी के इस लंगर का पता मुझे यहां फार्महाऊस में पहले से काम कर रहे मजदूर साथियों ने बताया। अब रोज करीब सौ रुपये ज्यादा बचा पाता हूं। वहीं, करीब दस साल के बेटे और छोटी बेटी के साथ भोजन करने वाली शीला मिश्रा ने कहा कि वह करीब तीन साल से हफ्ते में तीन-चार बार भोजन करने के लिए मुनिरका के पास की झुग्गी बस्ती से यहां आ रही हैं। बस में टिकट नहीं लगता, तो हम तीनों यहां आ जाते है। रोज आदर के साथ हम सब को पेट भरकर अलग-अलग तरह का खाना मिलता है। दोपहर का खाना यहां खाने और कई बार रेहड़ी लगाने वाले अपने पति के लिए भी खाना साथ ले जाने से अब हम तीन हजार रुपये ज्यादा बचा पाते हैं। मैं ही नहीं, यहां आनेवाले करीब ढाई-तीन सौ लोगों के लिए माताजी ‘अन्नपूर्णा’ हैं, जो हमें रोज ताजा खाना खिला रही हैं।
हम माजदूरों से अभी बात कर ही रहे थे कि उसी बीच एक सभ्य महिला वहां आईं और यहां बांटे जा रहे भोजन का निरीक्षण करने के साथ भोजन बांट रहे स्टाफ को कुछ समझाने लगीं। मैंने गेट पर खड़े फॉर्म हाउस के वॉचमैन से महिला के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि यही अरुणा जी हैं। फॉर्म हाउस की मालकिन हैं और इस लंगर को चलाती हैं। इसके बाद मैंने वापस फार्महाउस जा रही अरुणा जी को बताया कि मैं पत्रकार हूं। आपके और इस लंगर कमे बारे में जानना चाहता हूं। इस पर उन्होंने बस यही कहा- ‘अब तो मैं ईश्वर की पोस्टमैन बन गई हूं। वह कुछ मुझे करने को देता है, तो अपनी सामर्थ्य से बिना किसी स्वार्थ के वह कर रही हूं। मुझे ईश्वर के इस कार्य का प्रचार नहीं चाहिए।’
मेरे अनुरोध पर उन्होंने बताया, ‘मेरा नाम अरुणा गोयनका है। पिता मारवाड़ी बिजनेसमैन थे। वह जापान में बिजनेस करते थे, वहीं मेरा जन्म हुआ। बाद में हम सब वापस दिल्ली आ गये। यहां आने के बाद हम साउथ एक्सटेंशन में बस गये। यहां भी लंगर शुरू किया। साउथ एक्स में भी साफ पानी लेने और लंगर खाने के लिए चार-पांच किलोमीटर दूर से लोग आते थे। उसके बाद ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट््यूट में प्रतिदिन यहां आने वाले रोगियों के लिए दोपहर के भोजन का प्रबंध अपनी ओर से करने लगी। इसी बीच हम वसंत कुंज कंचनश्री फार्महाउस में आ बसे। फार्म हाउस में काम कर रहे मजदूरों से लेकर इनमें काम करने वाले स्टाफ को चाय-लंच के लिए काफी दूर जाना पड़ता है। पैसे की तंगी के चलते कई बार ये मजदूर भर पेट खा भी नहीं पाते हैं। ऐसे में मैने सबसे पहले अपने फार्महाउस के गेट पर आरओ पानी की टंकी लगवाई और टंकी में 24 घंटे साफ पानी उपलब्ध रहे, ऐसा इंतजाम किया। अगले ही दिन से मैंने फार्म हाऊस के गेट पर कुछ लोगों के लिए सुबह के नाश्ते से लंच और शाम की चाय तक का इंतजाम अपने स्टाफ के साथ मिलकर किया। मैने देखा हर दिन गेट पर चाय भोजन प्रसाद के लिए आने वालों की संख्या बढ़ रही है। ऐसे में मैंने अपनी जमा-पूंजी और अपनी सामर्थ्य शक्ति के मुताबिक ज्यादा से ज्यादा लोगों के लिए प्रसाद का प्रबंध करने का बीड़ा उठा लिया। अब हमारे यहां रोज 250 से 300 लोगों के लिए लंगर का इंतजाम होता है। ईश्वर की कृपा से जो भी कर रही हूं, उसमें मेरे माता-पिता का ही पूरा आर्थिक योगदान है। वैसे तो ईश्वर सबकुछ कर सकते हैं, लेकिन उन्होंने मुझे अपना पोस्टमैन बनाया है। ईश्वर जितना चाहते हैं, उसके अनुसार मैं कार्य कर रही हूं।’
उन्हांने बताया लंगर में बांटी जानेवाली सब्जियों से लेकर चावल तक ऑर्गेनिक फूड हैं, क्योंकि मेरा मानना है कि मैं जो खुद खाती हूं, वही सब दूसरो को भी खिलाऊं। मैंने फार्महाउस की 80 फीसदी भूमि पर ऑर्गेनिक सब्जियां लगा रखी हैं। गेट पर बंटने वाले भोजन में यही सब्जियां इस्तेमाल होती है। इतना ही नहीं, लंगर प्रसाद के लिए हम राजस्थान से ऑर्गेनिक मसाले, दाले, गेहूं आदि मंगाते हैं। इन्हीं का प्रयोग अपनी रसोई से लेकर हर रोज होने वाले इस लंगर में भी करती हूं। अरुणा जी इस पुनीत कार्य के लिए किसी से मदद नहीं लेती हैं। उनका कहना है सब माता-पिता के आशीर्वाद से चल जाता है वह कहती हैं, ‘मेरा मानना है कि जो लोग आर्थिक तौर पर कमजोर या लाचार हैं, उन्हें पौष्टिक भोजन देना हमारी जिम्मेदारी है। सबसे ज्यादा नुकसानदायक हैं बाजार में उपलब्ध रिफाइंड तेल और केमिकलयुक्त सब्जियां।‘ इन हानिकारक वस्तुएं से हम कम से कम इन मज़दूरओं को बचा सके।