समान नागरिक संहिता आम चुनाव जीतने की एक रणनीति
क्या भारत जैसे विशालकाय लोकतंत्र देश में समान नागरिक संहिता संभव है? जहां विभिन्न सम्प्रदाय, विभिन्न समुदायें एवं विभिन्न जाती के लोग आपसमे रस्ते बस्ते हैं।
क्या भारत जैसे विशालकाय लोकतंत्र देश में समान नागरिक संहिता संभव है? जहां विभिन्न सम्प्रदाय, विभिन्न समुदायें एवं विभिन्न जाती के लोग आपसमे रस्ते बस्ते हैं।
समान नागरिक संहिता आम चुनाव जीतने की एक रणनीति है।
इसे चर्चा का विषय बनाकर वोटों का ध्रुवीकरण नहीं किया जाना चाहिए।
अब्दुल ग़फ़्फ़ार सिद्दीक़ी
हमारे प्यारे देश में इस समय समान नागरिक संहिता का मुद्दा चर्चा में है।केंद्र में सत्तारूढ़ राजनीतिक भगवा पार्टी ने घोषणा की है कि वह समान नागरिक संहिता लागू करेगी। इसके लिए उन्होंने विधि आयोग से देश की जनता की राय लेने को कहा है जिसकी आखिरी तारीख 30 जुलाई है। समान नागरिक संहिता का मुद्दा नया नहीं है बल्कि इसकी शुरुआत संविधान निर्माण से हो गई थी। जब संविधान का निर्माण किया जा रहा था तब इस पर आपत्तियां उठाई गई थीं, लेकिन उस समय मौखिक सांत्वना देकर चुप करा दिया गया था । वर्तमान सरकार के पास विकास कार्यों की सूची में देश की जनता को संतुष्ट करने और उन्हें अपना हमनवा बनाने के लिए कुछ भी नहीं है। क्योंकि पिछले नौ वर्षों में गर्व करने योग्य शायद ही कुछ किया गया हो। लेकिन उनके पास सबसे आसान नुस्खा मुसलमानों को डराकर हिन्दु वोटों को एक करना है। पहले राम मंदिर, फिर कश्मीर, फिर तीन तलाक और अब समान नागरिक संहिता इसके बाद अन्य मुद्दे भी होंगे जिन्हें भविष्य में उचित समय पर उठाया जाएगा। उदाहरण के तौर पर मुसलमानों के धार्मिक शिक्षण संस्थान बंद किये जा सकते हैं। उन्हें मतदान के अधिकार से वंचित किया जा सकता है। नागरिकता बिल आदि की आड़ में उन्हें अपने ही देश में शरणार्थी बनाया जा सकता है ।
भारत में मुस्लिम समुदाय 1857 से ही विभिन्न समस्याओं से जूझ रहा है। लेकिन इस वक्त उनके सामने कई नई समस्याएं हैं। एक तरफ सरकार और फिरकापरस्त पार्टियों ने उनकी जिंदगी को दो भर कर दिया है। दूसरी ओर, स्वयं मुस्लिम नेतृत्व उसे धोका दे रहा है और तीसरी ओर उसमें इतना नैतिक पतन आगया है जितना शायद इतिहास के किसी भी काल में नहीं आया होगा। हालाँकि देश के सभी लोग सरकार के कानूनों और जनविरोधी नीतियों के शिकार हैं, लेकिन मुसलमान अपनी अज्ञानता के कारण अधिक पीड़ित हैं। मॉब लिंचिंग के मामले अये दिन सामने आते रहते हैं। धार्मिक स्थलों पर सवाल उठते ही रहते हैं। यहां तक कि कोई भी व्यक्ति किसी सार्वजनिक स्थान पर अल्लाह के सामने सजदा तक नहीं कर सकता। इस के बाद भी मुस्लिम नेता हर मौके पर मुसलमानों से ही शांति और व्यवस्था बनाये रखने की अपील करते नजर आते हैं जैसे कि अशांति और अराजकता के लिए मुसलमान जिम्मेदार हों। हाल ही में ईद-उल-अज़हा के मौके पर एक आधिकारिक निर्देश आया था कि प्रतिबंधित जानवरों की बलि नहीं दी जानी चाहिए और निर्दिष्ट स्थानों को छोड़कर कहीं भी ईद की नमाज़ नहीं पढ़ी जानी चाहिए। मुझे लगता है कि यह काफी था क्योंकि कानून व्यवस्था लागू करने की जिम्मेदारी सरकार की होती है, इसलिए वह हर मौके पर ऐसी सलाह जारी करती हैं। न केवल मुस्लिम त्योहारों पर, बल्कि हिंदू त्योहारों पर भी। इसके बावजूद, मुस्लिम धार्मिक और मिल्ली रहनुमाओं द्वारा बड़ी तीव्रता से अपील जारी की जाती है। जो जरूरी नहीं है। मुसलमान हमेशा शांति से जीवन गुज़ारते रहे हैं। उन्होंने कानून का हमेशा पालन किया है। हिन्दू भाइयों द्वारा अराजकता का प्रदर्शन किया जाता है और किया जा रहा है। मुस्लिम रहनुमाओं की अपील पूरी क़ौम को दोषी बनाती है। सिर्फ अखबारों में नाम छपवाने और शासक से क़रीब होने के लिए क़ौम को अपराधी कियों बनारहे हैं ?
क्या भारत जैसे देश में समान नागरिक संहिता संभव है? यह एक बड़ा सवाल है। जाहिर है, समान नागरिक संहिता का संबंध पारिवारिक कानूनों से है। हमारे देश में एक ही धर्म के अनुयायियों के बीच भी पारिवारिक रीति-रिवाजों में अंतर होता है। यहां तक कि मौजूदा हिंदू विवाह अधिनियम में भी एकरूपता का अभाव है। भारत में हर सौ किलोमीटर पर संस्कृति बदल जाती है। धर्मों की संख्या भी उल्लेखनीय है। फिलहाल देश में आईपीसी और क्रिमिनल लॉ के बीच मतभेद हैं। एक अपराध के लिए एक राज्य में अलग सज़ा होती है, दूसरे राज्य में दूसरी । कुछ स्थानों पर गौहत्या वर्जित है और कुछ स्थानों पर नहीं। कुछ रजियों में दूसरे राज्य के लोग जमीन के मालिक हो सकते हैं तथा कुछ में नहीं। कुछ राज्यों में हिंदी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त है तो कुछ राज्यों में गैर-हिंदी को। तो फिर समान नागरिक संहिता कैसे संभव हो सकती है? एक समय हम भारत की अनेकता में एकता पर गर्व करते थे। आज हम इस अनेकता को ख़त्म करने पर तुले हुए हैं।
समान नागरिक संहिता मार्गदर्शक सिद्धांतों से संबंधित है। लागू करना या न करना सरकार के विवेक पर निर्भर है। सरकार यदि सचमुच इस अनावश्यक एवं हानिकारक प्रक्रिया को देश की एकता के लिए आवश्यक मानती है तो उसे समान नागरिक संहिता पर हंगामा खड़ा करने की बजाय इस का मसौदा जनता के सामने पेश करना चाहिए। जाहिर है, इस प्रक्रिया के लिए लंबे अभ्यास की आवश्यकता होगी । इसे क्रमिक तरीके से अपनाया जाना चाहिए। सबसे पहले, आपराधिक कानून, आईपीसी और नागरिक संहिता के वे कानून जो किसी भी धार्मिक व्यक्तिगत कानून का हिस्सा नहीं हैं, उनमें सुधार किया जाना चाहिए। इनकी एकरूपता से धर्म में हस्तक्षेप का खतरा नहीं रहेगा। इसके बाद प्रत्येक धर्म के पर्सनल लॉ में मौजूद विसंगतियों को दूर किया जाना चाहिए, उदाहरण के तौर पर इस्लाम को मानने वालों के लिए एक जैसा पर्सनल लॉ होना चाहिए। मसलक के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए, हिंदुओं का व्यक्तिगत कानून सभी के लिए समान होना चाहिए, क्षेत्र और जाति के आधार पर कोई अंतर नहीं होना चाहिए, अन्य धर्मों के लिए भी ऐसा ही होना चाहिए। यानी सरकार को सबसे पहले उन कानूनों में एकरूपता बनानी चाहिए जो धार्मिक पर्सनल लॉ से संबंधित नहीं हैं। इसके बाद एक धर्म के अनुयायियों के लिए एक समान पर्सनल लॉ बनाएं, इस तरह कम से कम दो चरण तय हो जाएंगे। मुझे उम्मीद है कि इन चरणों से गुजरते हुए सरकार को पसीना आ जाएगा।
सरकार को बताना चाहिए कि किस कानून के तहत शादियां कराई जाएंगी। क्या सभी लोग सरकारी दफ्तरों में मजिस्ट्रेट के सामने इजाब व क़ुबूल करेंगे या किसी समझौते पर हस्ताक्षर करेंगे या वरमाला पहनयें ? यदि एक से अधिक विवाह पर प्रतिबंध है तो लिव-इन रिलेशनशिप पर प्रतिबंध कियों नहीं लगेगा। बाल विवाह अधिनियम के बारे में सरकार का किया रुख़ होगा ,जो लोग कानून का उल्लंघन कर शादी करते हैं, या बाल विवाह करते हैं, क्या उन्हें सजा दी जायेगी या उनकी शादी को अवैध घोषित कर दिया जाएगा? यदि शादी को अवैध घोषित कर दिया गया तो उनके मौलिक अधिकारों का क्या होगा? अगर इस दंपत्ति को कोई बच्चा हुआ तो इस बच्चे का क्या होगा? सरकार को उन महिलाओं या पुरुषों को भी सूचित करना चाहिए जो किसी कारण कुवांरे हैं उन की शादी का किया होगा ? यदि दो से अधिक बच्चे वर्जित होंगे तो इसका समाधान भी दिया जाना चाहिए कि जिन दम्पत्तियों के बच्चे नहीं होंगे उनके लिए अपनी पीढ़ी आगे बढ़ाने का फार्मूला क्या होगा? ये और इसी तरह के प्रश्न तब तक उठते रहेंगे जब तक कोई निश्चित दस्तावेज़ सामने नहीं आ जाती ।
दुखद पहलू यह है कि मुस्लिम संगठन स्वयं मुसलमानों को भी इस्लाम के पारिवारिक कानून नहीं समझा सके हैं। किसी भी शहर में इसके लिए कोई केंद्र, कोई संस्था नहीं बनाई गई। हर शुक्रवार को लाखों मस्जिदों में इमाम साहब अरबी ख़ुत्बे के अलावा भाषण भी देते हैं लेकिन वह शायद ही कभी इन विषयों पर चर्चा करते हैं। हर साल हजारों मदरसों से हजारों मुफ्ती पास होते हैं, लेकिन मुझे नहीं पता कि वे कहां खो जाते हैं। अगर वे मुंह खोलते भी हैं तो कहानियां सुनाकर और हूरों का ब्यौरा बता कर ही संतुष्टि होजाते हैं।
समान नागरिक संहिता के मुद्दे के पीछे भगवा संगठन इस्लाम को बदनाम करना चाहते हैं। मुसलमानों को इस मौके पर सावधानी से काम लेना चाहिए। मुसलमान नरम चारा नहीं हैं जिसे चबा लिया जाए। इस आसमान ने सैकड़ों बार हमारा इम्तिहान लिया है, हम कर्बला और खिलाफत के पतन के बाद भी जीवित हैं, और इंशाअल्लाह जीवित रहेंगे। उन देशों में हम न केवल गौरवशाली जीवन जी रहे हैं, बल्कि फल-फूल रहे हैं, जहां समान नागरिक संहिता है। यू सी सी पर बिना ड्राफ्ट देखे किसी भी तरह की बयानबाजी से बचना चाहिए। पहले से यह कहना कि हम समान नागरिक संहिता को स्वीकार नहीं करेंगे, सरकार के लिए राह आसान करना है। मेरी राय है कि सरकार को इस मुद्दे पर अपना काम करने देना चाहिए, इसे चर्चा का विषय बनाकर वोटों के ध्रुवीकरण का मौका नहीं देना चाहिए। बल्कि यह एक अच्छा अवसर है जब मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस मुद्दे पर इस्लामी शिक्षाओं का ज्ञान दुनिया के सामने रख सकता है। समान नागरिक संहिता के विरोध में समय बर्बाद करने से बेहतर यह है कि इन विषयों पर कुछ शोध संस्थान देश की अलग-अलग भाषाओं में तर्कों के साथ फ़ोल्डर, पैम्फलेट और किताबें प्रकाशित करें। लेकिन क्षमा करें, हमारे धार्मिक और मिल्ली संगठन गंभीर और दूरगामी परिणामों वाली परियोजनाओं पर कम ध्यान देते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं )