रमज़ानुल मुबारक और नमाज़ ए तरावीह: कुछ हक़ाएक़ ,कुछ तथ्य!!!

आख़िरी नबी मुहम्मद सल्ल अल्लाह ओ अलैह ए वसल्लम के जीवन मे उन्होंने ने तरावीह की नमाज़ समूह के साथ अदा नहीं की और न उनके वंशज जिन्हें अहल ए बैत कहते हैं

आख़िरी नबी मुहम्मद सल्ल अल्लाह ओ अलैह ए वसल्लम के जीवन मे उन्होंने ने तरावीह की नमाज़ समूह के साथ अदा नहीं की और न उनके वंशज जिन्हें अहल ए बैत कहते हैं

रमज़ानुल मुबारक और नमाज़ ए तरावीह: कुछ अधिकारीक स्तय, कुछ तथ्य!!!

(यह आलेख – प्रोफ़ेसर, अली अहमद फ़िरदौसी साहब, का है –  जनाब प्रो0 डॉ, खुर्शीद अंसारी  द्वारा प्रकाशित

वरिष्ठ अध्यापक प्रबंधन,समाज विज्ञानी, चिंतक और शोधार्थी के अंग्रेज़ी में दिए गए फ़ेसबुक पोस्ट पर आधारित है, मेरा प्रयास है कि रूपांतरण और अनुवादन में अंग्रेज़ी लेख के मंतव्य को मूलरूप से संरक्षित किया जा सके)

इस्लामी धारणा और आस्था में रमज़ान का महीना पवित्रतम माना जाता है, जिसमे 30 दिनों तक दुनिया भर में मुसलमान सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक बिना किसी जल अन्न ग्रहण के भूख प्यास को नियंत्रित करता है। साथ ही अपने रचयिता के सम्मुख ख़ुद को ऐसे समर्पित करता है, जिसमे, आस्था, विश्वास, समर्पण, सहिष्णुता और संयम का अभूतपूर्व परिचय शामिल होता है।क्योंकि ईश्वर के सामने नतमस्तक होने के समय हो सकता है कि हमारा समर्पण या उसके सामने हमारी इबादत भटकी हुई या दिखावे वाली हो लेकिन जब रोज़ा रखा जाता है तो बंदे और अल्लाह के दरम्यान एक प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है क्योंकि वो जो सबकुछ जानने वाला है वो हमारी श्रद्धा, समर्पण हमारे भूखे प्यासे होने के शारीरिक कष्ट को देख रहा होता है जिसमे किसी प्रकार की मिलावट ,झूट मक्कारी की संभावना नहीं होती। इस महीने की महत्ता और अधिक बढ़ जाती है कि ईशवरीय संदेश पवित्र क़ुरआन की शक्ल में इसी माह आख़िरी पैग़म्बर(ईशदूत) पर इसी महीने में अवतरित हुई थी। सो बहुधा मुस्लिम समाज इस महीने में अधिक से अधिक क़ुरआन को पढ़ता समझता है, बल्कि अपने किये हुए पापों से प्रायश्चित करता है उस दयालु और कृपानिधान के सम्मुख जो हम सबका मालिक है,महान है, सर्वज्ञ है! उसी की इबादत का एक तरीक़ा इस महीने में 5 वक़्त की फ़र्ज़ नमाज़ों के अलावा तरावीह का है जिसके बारे में कुछ बाते की जानी और जान पाना बेहद अनिवार्य लगता है।

दुनिया भर में इस्लाम धर्म के अनुयायी और सुन्नी मुसलमान इस पवित्र महीने में, जैसे बताया गया कि कसरत से या अधिकाधिक नमाज़ समूहों में या संगठित(जमात) हो कर उपासनागृह(मस्जिद) में अदा करते है, इशा की नमाज़ के साथ ही।जो पांच वक़्त की अनिवार्य नमाज़ से अलग होती है ,जिसे तरावीह की नमाज़ कहा जाता है।,
हालांकि इस वर्ष कोरोना महामारी के कारण दुनिया भर में , यहां तक कि सऊदी अरब स्थित पवित्रतम तीर्थ स्थलों मक्का और मदीना में भी समूहों में तरावीह की नमाज़ पढ़ा जाना प्रतिबंधित है और यही हाल दुनिया के सभी देशों में जहां मुसलमान बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक हैं,समूह या जमात के साथ नमाज़ पढ़े जाने पर प्रतिबंध है।
जैसा मैंने बताया कि इस आलेख में इस्लाम धर्म मे भी अलग अलग समुदाय, वर्ग जैसे, शिया सुन्नी हनफ़ी, वहाबी आदि की वैचारिक विभिन्नता से न कोई बहस मुराद है और न ही उसकी आवश्यकता है परंतु शोध के अनुसार जो मौलिक समानताएं हैं वर्गों और समुदायों में, उसके प्रकाश में इस विशेष प्रार्थना तरावीह की नमाज़ के दौरान पवित्र क़ुरआन की 6666 आयतों यानि कि पूरा क़ुरआन इस पवित्र महीने में 3 दिन से लेकर या 27 दिनों में पढ़ी जाती है,इशा की नमाज़ के साथ ही जिसे नमाज़ ए तरावीह कहा जाता है। दिलचस्प यह है कि इस्लाम के उद्भव,विकास व विस्तार की यात्रा में नबी ए आख़िर के सहयोगियों, समकालीनों और ख़लीफ़ा के मध्य कुछ बेवजह के विवादों का भी उल्लेख्य मिलता है जिसके कारण तरावीह की नमाज़ पर अलग अलग इमामो की पैरवी करने वाले मुस्लिम समुदाय में भी कुछ अंतर दिखाई देता है जो कई बार अवांछनीय विवाद का कारण बन जाता है। उन विवादों पर उलझने और उनके विस्तार की न यहां आवश्यकता है और न ही प्रसंग, लेकिन तरावीह की नमाज़ केवल सुन्नी समुदाय द्वारा ही पढ़ी जाती है बल्कि शिया समुदाय इसे नही पढ़ता। जैसा मैंने पहले कहा कि उन कारणों और कारकों का यहां ज़िक्र बेमानी है, और लेख की मूलभावना को प्रभावित करेगा और साथ ही इसे विस्तार देगा जो यहां अनिवार्य नहीं है।
आख़िरी नबी मुहम्मद सल्ल अल्लाह ओ अलैह ए वसल्लम के जीवन मे उन्होंने ने तरावीह की नमाज़ समूह के साथ अदा नहीं की और न उनके वंशज जिन्हें अहल ए बैत कहते हैं, उन्होंने की – कुछ हदीस के विद्वानों ने हालांकि कि कुछ बार रमज़ान।के महीने में मस्जिद में तरावीह की नमाज़ पढ़ने का उल्लेख किया है, जो क़ुरआन के शब्द से व्यख्यायित किया जाता है कि अल्लाह ने रमज़ान में क़याम ए लैल(रात को मस्जिद में खड़े होकर कसरत से इबादत) का हुक्म मिलता है।चूंकि क़ुरआन और हदीस में प्रत्यक्ष इसका वर्णन नहीं है तो बहुत सारे लोगो को नमाज़ ए तरावीह पर संशय है जिसका समाधान ढूढने का प्रयास किया जा सकता है ।क़ुरआन में जैसे ऊपर बताया गया कि सलात ए लैल या क़याम ए लैल एक ऐसी नमाज़ है जो इशा की नमाज़ और भोर होने के बीच मे पढ़ी जाए, जिसे तहज्जुद कहा गया है और हदीस में नबी सल्ल.व.के कसरत से और अपने सम्पूर्ण जीवन काल मे तहज्जुद पढ़ने का वर्णन मिलता है।
तरावीह के परिदृश्य को समझने का प्रयास करे नबी ए आख़िर द्वारा समूह या जमात के साथ नमाज़ के पढ़ने का कोई जिक्र नहीं है हाँ तहज्जुद नमाज़ अकेले पढ़ने का तज़किरा सभी हदीस की किताबों में उद्धृत है। एक बार रमज़ान के महीने में नबी आख़िर मस्जिद आये और नमाज़ पढ़ने लगे तो अगले दिन उनके कुछ सहाबी(companion) ने उनके साथ नमाज़ पढ़ना शुरू किया और तीसरे दिन उन्होंने महसूस किया कि बहुत सारे साथी उनके साथ समूह में नमाज़ पढ़ने लगे ये देख कर उन्होंने अगले दिन वहां न जाकर घर मे ही नमाज़ अदा की।जब साथियो ने पूछा तो उन्होंने फ़रमाया”अगर मैं आप लोगो के साथ यह नमाज़ पढ़ने लगूंगा तो यह आप पर फ़र्ज़ हो जाएगी . उसके बाद से हुज़ूर ए पाक अपने घर एकांत में क़याम ए लैल की नमाज़ अदा करते थ. तरावीह की नमाज़ के विषय मे हम विस्तार से और चर्चा करें उस से पूर्व आइए हम दुनिया भर में इस्लाम के अनुयायियों द्वारा कितने प्रकार की नमाज़ और उनके महत्व के हिसाब से पढ़ी जाती है, उसे समझने का प्रयास करते है।
1.फ़र्ज़ नमाज़: यह वो नमाज़ है जो दिन भर में 17 रिकत पढ़ी जाती है जो किसी 12 वर्ष के बच्चे की आयु से जीवन पर्यंत पढ़नी होती है। यह 17 रिकत नमाज़ फज्र(2), ज़ुहर (4), अस्र(4),मग़रिब(3) और इशा(4).और यह नमाज़ें पढ़ना अनिवार्य हैं जिसका हिसाब किताब और दंड ईश्वर द्वारा यौम ए आख़िरत(जजमेंट डे) के दिन किया जाना है।
2. वाजिब: ये भी फ़र्ज़ नमाज़ की तरह अनिवार्य जैसी ही हैं, जैसे ईद की नमाज़ें
3. सुन्नत ए मुअक्केदा : फ़र्ज़ नमाज़ों के साथ ही ईशदूत द्वारा हमेशा पढ़ी जाने वाली नमाज़ें हैं जैसे मग़रिब नमाज़ के बाद कि इकाई नमाज़ 2 रिकत की पढ़ी जानी सुन्नत ए मुअक्केदा हैं
4.सुन्नत ए ग़ैर मुअककेदा: नबी सल्ल.व.आ.वस्सलम द्वारा फ़र्ज़ नमाज़ से पहले या बाद में पढ़ी जाने वाली इकाइयां है जिसे नबी अनियमितता से पढ़ा करते थे जैसे सूर्योदय से पूर्व पढ़ी जाने वाली फ़र्ज़ नमाज़ से पहले 2 रिकत की नमाज़।
5.मुस्तहब : इच्छा पर या बताई या अनुमोदित की गई नमाज़ें, जिन्हें किसी समय पढ़ा जाए
6. नमाज़ ए किफ़ाया : सामुदायिक नमाज़ ,जिसे अकेले पढ़ा जाए तो भी वो सामुदायिक ही मानी जाती है जैसे नमाज़ ए जनाज़ा, किसी की मृत्य पर पढ़ी जाने वाली नमाज़, किफ़ाया नमाज़ है।
7.नमाज़ ए नफ़िल : ऐसी नमाज़ जो वैकल्पिक है जिसे कोई भी उपासक जितनी चाहे पढ़ सकता है, और कभी भी पढ़ी जा सकती है जिसके लाभ को उपासक के बही खाते में जोड़ा जाएगा और तदनुसार अल्लाह द्वारा आख़िरी दिन उसका बदला दिया जाएगा .
8. नमाज़ ए वित्र : ये विषम रिकत की नमाज़ होती हैं जैसे 3 रिकत इशा के वक़्त ,रात में पढ़ी जाने वाली इन 3 रिकत नमाज़ को वित्र कहा जाता है।हनफ़ी वर्ग के प्रवर्तकों के लिए वित्र नमाज़ वाजिब ,माने अनिवार्य होती हैं।
इतना जानने के बाद आइए हम फिर से तरावीह की नमाज़ के बारे में अपनी चर्चा को आगे बढ़ते हैं।
शाब्दिक अर्थों।में तरावीह के माने रिलैक्स या रेस्ट करने के होते है।चूंकि हर चार इकाई के पूर्णता के बाद थोड़े समय का अंतराल होता है इस वजह से इसे तरावीह कहते हैं. मुहम्मद SAW और पहले ख़लीफ़ा के द्वारा इसे नही पढ़ा गया है। दूसरे ख़लीफ़ा के समय मे एक रात जब वो मस्जिद में आये तो उन्होंने देखा कि रमज़ान की एक रात को बहुत सारे उपासक नमाज़ पढ़ रहे थे, लेकिन या तो अलग अलग या छोटे छोटे समूहों में और कुछ लोग बिना कारण के आपस मे बात चीत कर रहे थे। पता करने पर बताया गया कि क़याम ए लैल के दौरान वो लोग पूरी क़ुरआन पढ़ कर इबादत करते हैं। उन्होंने यह देख कर हज़रत उबै बिन काब को बुलाया और उन्हें निर्देशित किया कि उनकी इमामत में आज से एक ही जमात में यह नमाज़ पढ़ी जाएगी, और यह भी अनुमोदित किया कि यह नमाज़ 20 रिकत की होगी, हालांकि इसकी संख्या पर कई मुस्लिम विद्वानों में थोड़ा मतांतर मिलता है (जैसे शेखुल हदीस हाफ़िज़ अब्दुल अज़ीज़ अल्वी ने मुता इमाम मालिक का उद्धरण करते हुए वित्र नमाज़ के साथ 11 रिकत पढ़ने के दूसरे ख़लीफ़ा द्वारा दिये गए आदेश का भी ज़िक्र किया है) हालांकि ख़लीफ़ा सानी ने यह कहा है कि यह बिदअत (इन्नोवेशन)है लेकिन बिदअत ए हुस्ना(अच्छई के लिए )है।
पांच इस्लामिक अध्ययन केंद्रों और उनके द्वारा प्रतिपादित इस्लामी सिद्धांतो के अनुरूप तीन द्वारा सर्व सम्मति विशेष कर हम्बली, शाफ़ई,और हनफ़ी के द्वारा 20 रिकत को वैश्विक स्वीकार्यता प्राप्त है,जो दूसरे खलीफ़ा के समय मे निर्देशित की गई हैं। और साथ ही एक दिलचस्प तथ्य यह दूसरे ख़लीफ़ा ने अपनी पूरी ज़िंदगी तरावीह की नमाज़ समूह में और मस्जिद में कभी नही पढ़ी।मालिकी इस्लामी स्थापत्य के अनुसार इस नमाज़ में 16 और रिकत जोड़ दिया गया और इसे 39 रिकत की नमाज़ बन दिया गया।ख़लीफ़ा उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ के दौर में तरावीह को 36 रिकत का किया गया . जाफ़री इस्लामी संस्थान के(शिया) के अनुयायी तरावीह तो नही पढ़ते लेकिन इशा की नमाज़ पढ़ते हैं जो कई बार 40 इकाइयों(रिकात) तक पढ़ी जाती देखी गई है। इमाम इब्न तमीययाह के अनुसार इसे 8 और 20 रिकातो में से कोई एक पढ़ा जा सकता है। इमाम मालिक के प्रवर्तकों द्वारा इसकी संख्या में लचीला पन पाया जाता है।मतांतर के उपरांत भी 1200 वर्षों तक मुसलमानों द्वारा सर्व सम्मति से 20 रिकत की तरावीह की नमाज़ पढ़ी जाती रही है लेकिन पिछले 200 वर्षों में वहाबी मत और सलफ़ी मत के उत्थान के चलते और उसके बढ़ते प्रभाव के बाद तरावीह के नमाज़ों में रिकातो की संख्या में सुन्नी मुस्लिम समुदाय में घोर विवाद ने जन्म लिया है।
असल मे किसी मोमिन से बिना किसी मतभेद और नाजायज़ विवाद को छोड़ कर फ़र्ज़ नमाज़ों की अदायगी जो अनिवार्यता है, उसके साथ, जितनी चाहे नमाज़ें पढ़ कर अपने ईश्वर के आगे समर्पित हो सकते हैं। यदि वो तरावीह न पढ़ सके तो भी वो सूरह तरावीह, 30 वें पारे की 10 आख़िरी सूरह को 2 ,2 बार पढ़ के 20 रिकत की नमाज़ ए तरावीह मुकम्मल की जा सकती है।बशरते कि नेक इरादे से अगर कोई इच्छाशक्ति हो तो निश्चित ही आगे रास्ता भी है और सुगमता भी। वरना….
इस आलेख का उद्देश्य इस्लामिक मानद संस्थानों के मतभेद या किसी प्रकार के टकराव को रेखांकित करना नहीं है बस इस्लामिक ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में कुछ तथ्य प्रस्तुत करने का प्रयास है। चूंकि मूल लेखक प्रोफ़ेसर अली अहमद फ़िरदौसी साहब और अनुवादक दोनों ही शोधार्थी हैं इसलिए रचनात्मक आलोचना स्वागत योग्य है और अपनी भूल को यदि कोई है तो,स्वीकार करने को ततपर हैं।ज्ञानवर्धन की प्रतीक्षा में!!!

#AliAhamdFirdausi Sir

डॉ ख़ुर्शीद अहमद अंसारी
नई दिल्ली

Leave A Reply

Your email address will not be published.