सावरकर बंधुओं की रिहाई के लिये गांधीजी के प्रयास – विवेकानंद माथने।
सावरकर देश भक्त या देश द्रोही - अपनी समीक्षा दे रहे है महाराष्ट्र से किसान नेता एवं वरिष्ठ समाज सेवी विवेकानंद मथने
सावरकर बंधुओं की रिहाई के लिये गांधीजी के प्रयास – सावरकर के बड़े भाई ने गांधी जी उनके रिहाई के लिये दूसरी चिट्ठी लिखी थी- विवेकानंद माथने
सावरकर बंधुओं की रिहाई के लिये गांधीजी के प्रयास!
विवेकानंद माथने
अंग्रेजी हुकूमत में सावरकर बंधु को राजद्रोह के आरोप में 24 सितंबर 1910 आजीवन कालेपानी की सजा सुनाई गई थी और 1911 से उन्हे अंदमान द्वीप समूह में सेल्यूलर जेल में रखा गया था। सावरकर बंधु ने अपनी रिहाई के लिये अनेक पत्र लिखे लेकिन जब इन पत्रों के बाद भी सफलता नही मिली तब उनके भाई डॉ. नारायण सावरकर ने गांधीजी को सावरकर बंधु के रिहाई के लिये पत्र लिखकर निवेदन किया था।
अंग्रेजी सरकार ने दिसंबर 1919 में राजानुकंपाका की शाही घोषणा की थी। शाही घोषणा में कहा गया था कि….मै अपने वाइसरायको निर्देश देता हूं कि वे मेरे नामपर और मेरी ओरसे, राजनीतिक अपराधियोंके साथ, सार्वजनिक सुरक्षा का खयाल रखते हुये जहांतक ठीक लगे वहां तक, राजानुकंपाका प्रयोग करें।….मुझे विश्वास है कि जिन लोगों को इस उदारता का लाभ मिलेगा वे अपने भावी आचरण द्वारा इसका औचित्य सिद्ध करेंगे और मेरी सारी प्रजा ऐसा आचरण करेगी जिससे भविष्य में ऐसे अपराधों से संबंधित कानूनों पर अमल करने की जरुरत ही न पडे।
शाही घोषणा के बावजूद रिहा किये जानेवाले लोगों में सावरकर बंधु का नाम नही था। उनके भाई को बंबई सरकार ने इस आशय का उत्तर भेजा था कि उनके संबंध में आगे कोई स्मृतिपत्र वगैरह स्वीकार नहीं किया जाएगा और श्री मॉण्टेग्यु ने कॉमन्स सभा में बताया है कि भारत सरकार के विचार से उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता। तब 18 जनवरी 1920 को डॉ. सावरकर ने गांधीजी को दूसरा पत्र लिखा।
डॉ. सावरकर पत्र में कहते है कि कल मुझे भारत सरकार द्वारा सूचित किया गया कि रिहा किये जानेवाले लोगों में सावरकर बंधु शामिल नही है। कृपया मुझे बताये कि इस मामले में क्या करना चाहिये। मेरे दोनों भाई अंदमान में दस वर्ष से ऊपर कठिन सजा भोग चुके है और उनका स्वास्थ बिलकुल चौपट हो चुका है। उनका वजन 118 पौंड से घटकर 95-100 पौंड रह गया है।….यदि भारतकी किसी अच्छी आवहवा वाली जेलमें भी उनका तबादला कर दिया जाये तो गनीमत हो। मुझे आशा है आप सूचित करेंगे कि आप इस मामले में क्या करने जा रहे है।
गांधी जी ने 25 जनवरी 1920 को डॉ. नारायण दामोदर सावरकर को लाहोर से जवाबी पत्र लिखा, जिसमें कहां कि प्रिय डॉ. सावरकर, आपका पत्र प्राप्त हुआ। आपको परामर्श देना कठिन कार्य है। तथापि मेरा सुझाव है कि आप एक संक्षिप्त याचिका तैयार करें, जिसमें तथ्यों को इस प्रकार प्रस्तुत करें ताकि यह बात बिलकुल स्पष्ट रुपसे उभर आये कि आपके भाई साहब ने जो अपराध किया था उसका स्वरुप बिलकुल राजनीतिक था। मै यह सुझाव इसलिये दे रहा हूं कि तब जनता का ध्यान उस ओर केंद्रित करना संभव हो जायेगा। इस बीच, जैसा कि मै अपने एक पहले पत्र में आपसे कह चुका हूं, मै अपने ढंगसे इस मामले में कदम उठा रहा हूं।
गांधीजी ने शाही घोषणा को उद्धृत करते हुये 26 मई 2020 को यंग इंडिया में लिखा था कि, जिस घोषणापत्र से उपर्युक्त उद्धरण लिया गया है वह पिछले दिसंबर मासमें प्रकाशित हुआ था। भारत सरकार और प्रांतीय सरकारों ने इस संबंध में जो कार्रवाई की, उसके परिणामस्वरुप उस समय कारावास भोग रहे बहुतसे लोगों को राजानुकंपा का लाभ प्राप्त हुआ है। लेकिन कुछ प्रमुख “राजनीतिक अपराधी” अब भी नही छोडे गये है। इन्ही लोगों में मै सावरकर बंधुओं की गणना करता हूं। वे उसी मानेमें राजनीतिक अपराधी है जिस मानेमें, उदाहरण के लिये, वे लोग है जिन्हे पंजाब सरकारने मुक्त कर दिया है। किंतु इस घोषणापत्र के प्रकाशन के आज पांच महीने बाद भी इन दोनों भाईयों को छोडा नही गया है।
इनमें से बडेका नाम है श्री गणेश दामोदर सावरकर। इनका जन्म सन 1879 में हुआ था और इन्हे शिक्षा दीक्षा मामूली ही मिली थी। सन 1908 में नासिक में स्वदेशी आंदोलन में इन्होंने बहुत प्रमुख हिस्सा लिया। जून 1909 में इन्हे खंड 121, 121(क), 124(क) और 153(क) के अंतर्गत जायदाद की जब्ती के साथ आजीवन देशनिकाले की सजा दी गई। अभी वे अंदमान द्वीप समूह में अपनी सजा काट रहे है। इस प्रकार वे ग्यारह सालतक सजा भोग चुके है।
खंड 121 वही प्रसिद्ध खंड है जिसका उपयोग पंजाब के मुकदमों के सिलसिलेमें किया गया था और जिसका संबंध ‘राजाके विरुद्ध लडाई छेडने’ से है। इसके अंतर्गत जो कमसे कम सजा दी जा सकती है वह है जायदाद की जब्ती के साथ आजीवन देश निकाला। 121 (क) भी इसी तरह का खंड है। 124 (क) का संबंध राजद्रोह से है। खंड 153(क) का संबंध ‘बोलकर, लिखकर या अन्य किसी प्रकारसे शब्दों द्वारा’ विभिन्न वर्गों के बीच वैरभाव उत्पन्न करने से है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि (बडे) सावरकर महोदय पर लगाये गये सभी आरोप सार्वजनिक ढंगके थे। उन्होंने कोई हिंसात्मक कार्रवाई नही की थी। वे विवाहित थे, और उनके दो लडकियां थी, जिनका देहान्त हो चुका है। उनकी पत्नीकी मृत्यु भी अभी अठारह मास पूर्व हुई है।
दूसरे भाई, विनायक दामोदर सावरकर का जन्म सन 1884 में हुआ था। वे काफी समय तक लंदन में रहे और वहां उनकी जो गतिविधियां रही, उन्ही के कारण उन्हे अधिकांश लोग जानते है। पुलिस की निगरानी से भाग निकालने की उनकी सनसनी फैला देनेवाली कोशिश और जहाज के झरोखे से उनका फ्रांसीसी समुद्र में कूद पडना, इन बातोंकी याद जनता के मन में अब भी ताजा है। उनकी शिक्षा फर्ग्युसन कालेजमें हुई, लंदन में उन्होंने अपना अध्ययन समाप्त किया और बैरिस्टर बन गये। सन 1857 के सिपाही विद्रोहपर उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी, जो जब्त कर ली गई है। सन 1910 में उनपर मुकदमा चलाया गया और 24 सितंबर 1910 को उन्हें वही सजा दी गई जो उनके भाई को दी गई थी। सन 1911 में उनपर लोगों को हत्या के लिये उकसाने का आरोप लगाया गया। लेकिन इनके विरुद्ध भी किसी प्रकारकी हिंसा का आरोप सिद्ध नही हो पाया। वे भी विवाहित है और 1909 में इनको एक लडका भी हुआ। इनकी पत्नी अभी जीवित है।
इन दोनों भाइयों ने अपने राजनीतिक विचार स्पष्ट कर दिए हैं और दोनों ने कहा है कि उनके मन में किसी प्रकार के क्रांतिकारी इरादे नहीं है और अगर उन्हें मुक्त कर दिया गया तो वे सुधार कानून के अधीन काम करना पसंद करेंगे, क्योंकि उनका ख्याल है कि इन सुधारों से लोगों के लिए इस तरह काम करना संभव हो गया है, जिससे भारत को राजनीतिक दायित्व प्राप्त हो सके। दोनों ने स्पष्ट शब्दों में बता दिया है कि वे ब्रिटिश संबंधों से मुक्त नहीं होना चाहते। इसके विपरीत, उन्हें लगता है कि भारत की किस्मत ब्रिटेन के साथ रहकर ही सबसे अच्छी तरह गढ़ी जा सकती है। किसीने भी उनके खरेपन या ईमानदारी में संदेह नहीं किया है, और मेरा खयाल है कि उन्होंने जो विचार व्यक्त किये हैं, उन्हें ज्योंका त्यों सही मान लेना चाहिए और मेरे विचार से जो बात इससे भी बडी है वह यह कि आज बेखटके कहा जा सकता है कि इस समय भारत में हिंसावादी विचारधारा के अनुगामियों की संख्या नगन्य में है। अब इन दोनों भाइयों की स्वतंत्रता पर आगे रोक लगाये रखने का एकमात्र कारण ‘सार्वजनिक सुरक्षा को खतरा’ ही हो सकता है, क्योंकि महामहिम ने वाइसराय को राजनीतिक अपराधियों के प्रति, सार्वजनिक सुरक्षा का खयाल रखते हुए जहांतक ठीक लगे वहांतक, राजानुकंपा का प्रयोग करने का दायित्व सौंपा है। इसलिए मेरे विचार से अगर इस बात का पूरा प्रमाण सामने न हो कि इन दोनों भाइयों को छोड़ देना राज्य के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकता है तो वाइसराय इन्हें छोड़ने के लिए बंधे हुए हैं। इसके अलावा ये दोनों पहले ही काफी समय तक सजा भोग चुके है, इनके शरीर भी काफी छीज गये हैं और उन्होंने अपने राजनीतिक विचार भी स्पष्ट कर दिए है। सार्वजनिक सुरक्षा संबंधी शर्त पूरी हो जाने की स्थिति में इन दोनों भाइयों को छोड़ देना वायसराय के लिए उनकी जो राजनीतिक हैसियत है उसे ध्यान में रखते हुए, उतना ही जरूरी है जितना कि न्यायाधीशों के लिए, उनकी न्यायिक हैसियत के खयाल से, इन दोनों भाइयों पर कानून में विहित न्यूनतम दंड देना जरूरी था। अगर उन्हें आगे कुछ समय के लिए भी कैद में रखना है तो उसका औचित्य ठहराते हुए एक पूरा वक्तव्य जारी करना जनता के प्रति उनका कर्तव्य है।
यह मामला भाई परमानंद के मामले से न अच्छा है न बुरा, और पंजाब सरकार की कृपा से वे काफी समय तक कारावास भोग लेने के बाद अब छोड़ दिए गए हैं। अगर हम इस आधार पर इस मामले को सावरकर बंधुओं के मामले से अलग करके देखना चाहे कि भाई परमानंद ने अपने को बिल्कुल निर्दोष बताया तो यह भी ठीक नहीं होगा। जहां तक सरकार का संबंध है, सभी समान रूप से अपराधी थे, क्योंकि सभी को सजाएं दी गई थी। और राजानुकंपा का लाभ केवल संदिग्ध मामलों में ही नहीं देना है, बल्कि उन मामलों में भी देना है जिनमें अपराध पूरी तरह सिद्ध हो गया है, शर्ते केवल यह है कि अपराध राजनीतिक हो और राजानुकंपा के प्रयोग का परिणाम, वायसराय के विचार में, ऐसा न हो जिससे सार्वजनिक सुरक्षा खतरे में पड़ जाये। ये दोनों भाई राजनीतिक अपराधी है, इसमें तो कोई संदेह हो ही नहीं सकता। और जहांतक सर्वसाधारण को मालूम है, सार्वजनिक सुरक्षा को भी कोई खतरा नहीं है। वाइसराय की काउंसिल में ऐसे मामलों के संबंध में प्रश्न पूछने पर बताया गया कि ये विचाराधीन है। लेकिन उनके भाई को बंबई सरकार ने इस आशय का उत्तर भेजा है कि उनके संबंध में आगे कोई स्मृतिपत्र वगैरह स्वीकार नहीं किया जाएगा और श्री मॉण्टेग्यु ने कॉमन्स सभा में बताया है कि भारत सरकार के विचार से उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता। लेकिन इस मामले को इतनी आसानी से ताकपर नहीं रख दिया जा सकता। जनता को यह जानने का अधिकार है कि ठीक-ठीक वे कौन से कारण हैं जिनके आधार पर राज घोषणा के बावजूद इन दोनों भाइयों की स्वतंत्रता पर रोक लगाई जा रही है, क्योंकि यह घोषणा तो जनता के लिए राजाकी ओरसे दिए गये अधिकार पत्रके समान है जो कानून का जोर रखता है। (#1)
2 मई 1921 को सावरकर को अंदमान जेल से निकालकर हिंदुस्थान के जेल में भेजा गया था और 6 जनवरी 1924 से 1937 तक में रत्नागिरी में नजरबंद कर रखा गया था। 10 मई 1937 को सावरकर को नजरबंदी से पूर्ण रुपसे मुक्त किया गया।
1937 में सावरकर के नजरबंदी से रिहाई के लिये कुछ लोग पुन: गांधीजी के पास पहुंचे थे। उस संदर्भ में 20 जुलाई 1937 को गांधीजी शंकरराव देव को पत्र में लिखते है कि श्री सावरकर की रिहाई के बारें में जो स्मरण पत्र तैयार किया गया था, मैने उसपर दस्तखत करने से मना कर दिया क्योंकि जो लोग उसे लेकर मेरे पास आये थे, मैने उन्हे बताया कि यह सर्वथा अनावश्यक है, क्योंकि नये कानून के अमल में आने के बाद श्री सावरकरकी रिहाई तो हो ही जायेगी, चाहे मंत्री कोई भी हो। और वही हुआ है। सावरकर बंधु कमसे कम यह तो जानते है कि हममें चाहे कुछ सिद्धांतों को लेकर जो भी मतभेद रहे हो, लेकिन मेरी कभी यह इच्छा नही हो सकती थी कि वे जेलमें ही पडे रहे। जब मै यह कहूंगा कि मेरी ताकत में जो कुछ भी था, वह सब मैने उनकी रिहाई के लिये अपने ढंग से किया तो शायद डॉ. सावरकर भी मेरी बातका अनुमोदन करेंगे। और बैरिस्टर को शायद याद होगा कि जब पहली बार हम लंदन में मिले थे, तब हमारे संबंध कितने मधुर थे और कैसे जब कोई आगे नही आ रहा था, तब मैने उस सभा की अध्यक्षता की थी, जो उनके सन्मान में लंदन में हुई थी। (#2)
गांधीजी ने सावरकर को जोडने के लिये विशेष प्रयास किये थे। लेकिन सावरकर हमेशा गांधीजी का विरोध करते रहे। हरिभाऊजी फाटक को 12 अक्टूबर 1939 के पत्र में गांधीजी का पत्र में गांधीजी लिखते है कि तात्याजीने (न.चि. केलकर) तुमसे जो कुछ कहा वह तो पुरानी शिकायत है। मुझ में घमंड नही है। इस विषय में मै अपने को दोषी नही मानता। मै तो यह भी नही समझ पाया कि उनका इशारा किस ओर है। मुझे दावतें दिये जाने का यह भला क्या किस्सा है? उनका तथा उनके मित्रों का मन जीतने की मैने बहुत कोशिश भी की है। सावरकर के घर मै पैदल चलकर गया। उनका मन जीतने का मैने विशेष रुपमें प्रयास किया, किंतु असफल रहा। अब चूंकि तुमने मेरी बात सुन ली है, अब तुम्ही मुझे बताओ कि उन लोगों को जीतने का मुझे कौन सा जतन करना चाहिये। (#3)
गांधीजीने सावरकरको उनके भाई के मृत्यु समय भी 22 मार्च 1945 को पत्र लिखकर कहा था कि भाई सावरकर, आपके भाईके कैलासवासके समाचार देखकर यह लिख रहा हूं। उनकी रिहाई के बारेमें मैने कुछ किया था तबसे उनके बारेंमें मै रस लेता ही गया। मृत्यु का शोक तुम्हारे सामने क्या करना था? हम तो मृत्युके मुखमें पडे है ना। उनका परिवार ठीक होगा। (#4)
इस पत्राचार से यह स्पष्ट है कि गांधीजी के मनमें अन्य क्रांतिकारियों की तरह सावरकर के प्रति भी सम्मान था और गांधीजी ने उनके रिहाई के लिये उनसे संभव सभी प्रयास किये थे। सावरकरने भलेही गांधी की सत्यनिष्ठा और अहिंसा का विरोध किया हो लेकिन गांधीने अपने अहिंसा धर्म का पालन किया। अहिंसा धर्म के पालन में किसी के नफरत के लिये कोई जगह नही है।
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