रोज़ा सब्र, बर्दाश्त, क़ुर्बानी, हमदर्दी और आपसी मुहब्बत की सिफ़ात को परवान चढ़ाता है
रोज़ा सब्र, बर्दाश्त, क़ुर्बानी, हमदर्दी और आपसी मुहब्बत की सिफ़ात को परवान चढ़ाता है’
इस मुबारक महीने का इस्तक़बाल कीजिए और इस से भरपूर फ़ायदा उठाइये
गुनाहों की माफी और स्वक्षता का महीना का रमज़ान मुबारक
‘रोज़ा सब्र, बर्दाश्त, क़ुर्बानी, हमदर्दी और आपसी मुहब्बत की सिफ़ात को परवान चढ़ाता है’
*(इस मुबारक महीने का इस्तक़बाल कीजिए और इस से भरपूर फ़ायदा उठाइये)
*कलीमुल हफ़ीज़*
*रमज़ान का मुबारक महीना शुरु होने वाला है। इस महीने की फ़ज़ीलतें क़ुरआन और हदीसों में बेशुमार हैं। लेकिन इसकी सबसे बड़ी फ़ज़ीलत ये है कि इस महीने में क़ुरआने-पाक नाज़िल हुआ। यह महीना हमें रूहानी और अख़लाकी बुलंदी पर पहुँचाने के लिये है। इस महीने में हमदर्दी और मुहब्बत के जज़बात और अहसासात पैदा होते हैं। ये महीना हमें एक बड़े मक़सद के लिए तैयार करता है। लेकिन अफ़सोस यह है कि यह पवित्र महीना हर साल आता है और चला जाता है। हमारी ज़िन्दगी में कोई बदलाव नहीं आता। हमारी अख़लाक़ी हालत में और ज़्यादा गिरावट आ जाती है। हमारा समाजी और सियासी पिछड़ापन और बढ़ जाता है।*
*इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि हम शऊरी तौर पर इससे फ़ायदा नहीं उठाते। इस्लाम की दूसरी इबादतों के साथ हमने जो हाल किया है वही हाल हमने रमज़ान के साथ भी किया है। जो रोज़ा नहीं रखते उनका तो ज़िक्र ही क्या करना लेकिन जो लोग रोज़ा रखते हैं उनको तो कम से कम रोज़े के मक़ासिद पर नज़र रखनी चाहिए ताकि वो जिस भूख-प्यास और तकलीफ़ को बर्दाश्त करते हैं उसका फायदा उन्हें पहुंचे। रमज़ान का इस्तक़बाल कीजिये और अहद कीजिये कि इस बार पूरे शुऊर के साथ रोज़ा रखेंगे।*
*रमज़ान क़ुरआन का महीना है। इसलिये कि इस महीने में क़ुरआन नाज़िल हुआ। क़ुरआन पाक के नाज़िल होने की वजह से ही इस महीने को तमाम फ़ज़ीलतें हासिल हैं। इसी की वजह से रमज़ान को बाक़ी 11 महीनों पर सरदारी हासिल है। इसका मतलब है कि क़ुरआन की वजह से तरक़्क़ी हासिल होती है। यही बात अल्लाह के नबी (सल्ल०) ने फ़रमाई है कि इसी किताब की बदौलत क़ौमों को ऊँचा मक़ाम हासिल होता है और इसी की वजह से क़ौमें पस्ती के दलदल में चली जाती हैं।*
*मगर हमने क्या किया। क़ुरआन जो हमें हक़ व बातिल की तमीज़ बताने आया था, जो इसलिये दिया गया था कि हम इसको समझें और अमल करें, जिस में हमारी ज़िन्दगी के हर पहलू पर रहनुमाई है, इसी क़ुरआन को तावीज़-गंडों की किताब बना कर रख दिया है, जो हमें हुकूमत और सरबुलन्दी दिलाने आया था उससे हम जिन्न और भूत भगाने का काम लेने लगे, अब नाज़रा पढ़नेवाले भी कम हो गए, जो लोग पढ़ना जानते हैं वो भी बस रमज़ान में दौर कर लेते हैं। समझकर पढ़ने वालों का औसत शायद एक लाख में एक ही हो। मुसलमानों की पूरी-पूरी बस्तियाँ ऐसी हैं जहाँ कोई एक भी शख़्स क़ुरआन को समझ कर नहीं पढ़ता। यही हमारे पिछड़ेपन की वजह है।*
*आज के विकासशील ज़माने में क़ुरआन को समझना तो और भी आसान हो गया है। आप के मोबाइल पर बहुत-से आलिमों और मुफ़स्सिरों की तफ़्सीरें मौजूद हैं उनसे फ़ायदा उठाया जा सकता है। इस महीने में रोज़ा रख कर जो मक़सद हासिल करना है उसे क़ुरआन की ज़बान में तक़वा कहा गया है। जिसको हम परहेज़गारी कहते हैं। अल्लाह से डरने की सिफ़त को भी तक़वा कहा जाता है। रोज़ा हमारे अंदर अल्लाह के वुजूद, उसके हाज़िर व नाज़िर होने का एहसास दिलाता है। हम रोज़े की हालत में इसीलिये कोई ऐसा काम नहीं करते जो रोज़े को तोड़ने वाला हो, छिप कर भी नहीं करते, क्योंकि हमारा ईमान है कि अल्लाह हर जगह मौजूद है और वो हर वक़्त देख रहा है।*
*रोज़े की हालत में हम किसी की बुराई नहीं करते, लड़ाई नहीं करते, झूट नहीं बोलते, इसलिये कि हमें मालूम है कि ऐसा करने से हमारे रोज़े में कमी आ जाएगी और यह रोज़ा न होकर फ़ाक़ा हो जाएगा। लगातार एक महीने तक की यह ट्रेनिंग हमारी रूह को पाक करने के लिये काफ़ी है, लेकिन हमारी रूह जैसी रमज़ान से पहले होती है वैसी ही ईद के बाद रहती है। हम इन बुराइयों से रोज़े की हालत में भी नहीं रुकते जिन से रुकना चाहिये। ज़्यादातर रोज़ेदार झूट बोलना, गालियाँ देना, ग़ीबत करना नहीं छोड़ते। यह रवैया मुनासिब नहीं है। रमज़ान हमारी अख़लाक़ी तरबियत का महीना है। हमें अपने अख़लाक़ को निखारना चाहिए।
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